उत्तराखंड के लोकपर्व “इगास बग्वाल ” की कहानी

पूरे देश में हर वर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली का त्यौहार मनाया जाता है, दीपावली एक संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ होता है “रौशनी की शक्ति” जैसे कि अर्थ में ही इस त्यौहार का पूरा सार छिपा है। जहां भारत के ज्यादातर क्षेत्रों में दीपावली को छोटी और बड़ी दीपावली के रूप में जानते हैं वहीं उत्तराखंड में दीवाली का एक और स्वरूप है जिसे इगास कहा जाता है।
इगास कार्तिक शुक्ल की एकादशी तिथि को मनाया जाता है, जिसे हरिबोधिनी या देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है।

उत्तराखंड में इगास मनाने के पीछे कई किवदंतियां, कई मान्यताऐं हैं- एक मान्यता के अनुसार भगवान राम के अयोध्या लौटने की खबर गढ़वाल में 11 दिन बाद मिली थी।
इसके पीछे एक और मान्यता है-

अगर आप उत्तराखंडी हैं तो आपने एक लाइन जरूर सुनी होगी

बारह ऐनी बग्वाल मेरो माधो नी आई, सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई

इस पंक्ति का अर्थ है कि 12 बग्वाल यानी 12 दीवाली चले गई लेकिन मेरा माधो नहीं आया, 16 श्राद्ध चले गए लेकिन मेरा माधो नहीं आया।
उत्तराखंड और पहाड़ के कई गांवों में इन पंक्तियों की चांछड़ी भी लगाई जाती है।

वैसे तो इगास मनाने के पीछे कई तर्क और अनेकों कारण हैं लेकिन वास्तविक मान्यता ये है कि आज से लगभग 400 साल पहले तिब्बतियों ने वीर भड़ बर्थवाल की हत्या कर दी जिसकी सूचना राजा महिपत शाह को मिलते ही उन्होंने वीर माधो सिंह को सेना सहित तिब्बत पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया फिर वीर भड़ माधो सिंह ने विशाल सेना सहित तिब्बत पर आक्रमण किया और तिब्बतियों को हराकर उनपर कर लगा दिया। इसके बाद तिब्बत की सीमा पर कुछ शूल गाढ़ दिए जिनसे बाद में मैकमोहन रेखा का निर्धारण हुआ।
कहा जाता है कि सेना जब वापस आ रही थी तो रास्ता भटक गयी, वीर भड़ माधो सिंह रास्ता ढूंढते हुए दुसान क्षेत्र में पहुंच गई, उधर राजा महिपत शाह को भी जब बहुत ढूंढने के बाढ़ माधो की सेना का पता नहीं चला तो उन्हें चिंता हुई और उन्हें मृत मान लिया गया। लेकिन कार्तिक अमावस्या के ठीक 11 दिन बाद माधो सिंह विजय पताका के साथ सेना सहित गढ़वाल लौटे और उनकी वापसी की खुशी में जश्न मनाया गया। और इस जश्न को इगास नाम दिया गया।

बड़ी बग्वाल की तरह इस दिन भी दिए जलाते हैं, पकवान बनाए जाते हैं. यह ऐसा समय होता है जब पहाड़ धन-धान्य और घी-दूध से परिपूर्ण होता है. बाड़े-सग्वाड़ों में तरह-तरह की सब्जियां होती हैं. इस दिन को घर के कोठारों को नए अनाजों से भरने का शुभ दिन भी माना जाता है.

इस अवसर पर नई ठेकी और पर्या के शुभारम्भ की प्रथा भी है. इकास बग्वाल के दिन रक्षा-बन्धन के धागों को हाथ से तोड़कर गाय की पूंछ पर बांधने का भी चलन था. इस अवसर पर गोवंश को पींडा (पौष्टिक आहार) खिलाते, बैलों के सींगों पर तेल लगाने, गले में माला पहनाने उनकी पूजा करने का चलन हैं. इस बारे में किंवदन्ती प्रचलित है कि ब्रह्मा जी ने जब संसार की रचना की तो मनुष्य ने पूछा कि मैं धरती पर कैसे रहूंगा? तो ब्रह्मा ने शेर को बुलाया और हल जोतने को कहा. शेर ने मना कर दिया. इसी प्रकार कई जानवरों से पूछा तो सबने मना किया. अंत में बैल तैयार हुआ. तब ब्रह्मा ने बैल को वरदान दिया कि लोग तुझे दावत देंगे, तेरी तेल मालिश होगी और तुझे पूजेंगे. इसीलिए पहाड़ो में वर्षों से ये होता आ रहा है।

इस दिन उजालों से पूरे पहाड़ को रौशन करने के लिए भेलो खेलने का रिवाज भी है। यानी कि एक तरह की मशाल से खेलने का रिवाज है।
परंपराओं के अनुसार भेलो को चीड़ की लकड़ी से बनाया जाता है क्योंकि चीड़ में मौजूद लीसा आग को देर तक जलाए रखता है।
भेलो ज्यादातर घनी और अंधेरी रात के समय खेला जाता है जो कि प्रतीक है अंधकार पर रौशनी की विजय क

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