गढ़वाल-केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा की कहानी

14 जनवरी 1921 को कुमाऊं मंडल के बागेश्वर में कुली बेगार कानून के खिलाफ ऐसा ऐतिहासिक विद्रोह हुआ, जिसने ब्रिटिश हुकूमत को सकते में डाल दिया था। बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में हजारों लोग बागेश्वर में सरयू नदी के किनारे जुटे और कुली बेगार से जुड़े रजिस्टर पानी में बहा दिए।

इस घटना ने समूचे उत्तराखंड में लागू कुली बेगार जैसे काले कानून की ताबूत में आखिरी कील ठोकने का काम किया। कुमाऊं में जहां इस आंदोलन का नेतृत्व बद्रीदत्त पांडे और अन्य जोशीले युवाओं के हाथों में था, तो वहीं गढ़वाल मंडल में एक 26 साल के युवा ने इस काले कानून के खिलाफ लोगों को लामबंद करने का बीड़ा उठाया था।

उस युवा का नाम था, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, जो अपनी तमाम उपलब्धियों के चलते ‘गढ केसरी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

एक स्वाधीनता सेनानी, शानदार वकील, कुशल नेतृत्वकारी और प्रेरक प्रशासक के रूप में अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को बड़े सम्मान के साथ याद किया जाता है। आइए आज उनकी जीवन यात्रा से रूबरू होते हैं।

जन्म और बचपन- 

अनुसूया प्रसाद बहुगुणा का जन्म 18 फरवरी 1894 को नंदप्रयाग के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उनके पिता सेठ गोविंद प्रसाद बहुगुणा वहां के प्रतिष्ठत व्यक्ति थे। उस दौर में उस इलाके में जन्म लेने वाले अधिकतर बच्चों का नाम गोपेश्वर से आगे स्थित अनूसूया माता मंदिर के नाम पर रखा जाता था।

बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा की प्रारंभिक शिक्षा नंदप्रयाग में ही हुई जिसके बाद हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए उनका दाखिला मिशन स्कूल चोपड़ा में कराया गया।

हाईस्कूल पास करने के बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए पहले अल्मोड़ा के प्रसिद्ध रैमजे इंटर कॉलेज और फिर बीएससी के लिए म्योर सेन्ट्रल कॉलेज इलाहाबाद पहुंचे।

इलाहाबाद में अध्ययन के दौरान अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को आजादी के आंदोलन में सक्रिय तमाम नायकों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ जिससे उन्हें भी आजादी के आंदोलन में कूदने के लिए प्रेरणा मिली।

वकील और समाज सुधारक के तौर पर जीवन-

उनके पिता उन्हें बड़ा सरकारी अधिकारी बनाना चाहते थे लेकिन उनके मन में ब्रिटिश सरकार की नौकरी करने के बजाय उसके खिलाफ संघर्ष करने का इरादा पक्का हो चला था।

लिहाजा नायब तहसीलदार की परीक्षा पास करने के बावजूद वे नौकरी करने के बजाय सक्रिय रूप से आजादी के आंदोलन में कूद गए। उन्होंने इलाहाबाद से ही वकालत की पढ़ाई पूरी की बहुत जल्द कुशल वकील के तौर पर जाने जाने लगे।

कहा जाता है की-

एक बार नैनीताल की अदालत में जज साहब नाराजगी के चलते अनुसूया प्रसाद बहुगुणा का सामना नहीं करना चाहते थे। उन्होंने बहुगुणा की ओर पीठ कर ली, लेकिन अदालत के इस नकारात्मक रवैये के बाद भी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने जिस मजबूती के साथ तर्क प्रस्तुत किए उससे जज साहब बहुत प्रभावित हुए और तमाम नाराजगी के बाद भी अदालत का फैसला उनके पक्ष में आया ।

अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने  सार्वजनिक जीवन की सबसे पहली चुनौती कर्णप्रयाग में अंग्रेजी मिडिल स्कूल के प्रांतीकरण को लेकर पेश हुई , जब ब्रिटिश सरकार ने प्रांतीय करण की पहली शर्त विद्यालय के पूरे संसाधन और भवन तैयार करने की शर्त रखी और इसी दौरान विद्यालय के संस्थापक महेशानंद नौटियाल जी की मृत्यु हो गई थी।

इस अंग्रेजी मिडिल स्कूल की स्थापना के लिए वह मदन मोहन मालवीय की तर्ज पर उन्होने लोगों से चंदा मांगना शुरू किया ।  थोडे समय में अपने प्रयासों से 35 हजार रूपए की बडी़ धनराशि  इकट्ठा की ।

वकालत शुरू करने के दौरान प्रारंभ में बैरिस्टर मुकंदी लाल बैरिस्टर उनके मेंटॉर रहे ।

कूली-बेगार प्रथा का विरोध-

साल 1921 में जब राष्ट्रीय स्तर पर असहयोग आंदोलन प्रारंभ हुआ तो बागेश्वर में सरयू नदी के तट पर कूली- बेगार के रजिस्टर बहा दिए गए, तब बैरिस्टर मुकंदी लाल ने पौड़ी में और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने ककोड़ा खाल दशज्यूला पट्टी चमोली में कुली बेगार प्रथा के विरूद्ध सफल आंदोलन का नेतृत्व किया ।

लोग इस आंदोलन से इतना प्रभावित हुए की अंग्रेज  यहां एक कुली के लिए भी तरस गए । उन्हें छोटे-छोटे कामों के लिए कंपनी के मजदूरों पर निर्भर रहना पड़ा। ककोड़ाखाल आंदोलन की अपार सफलता के बाद अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को गढ़-केसरी की उपाधि मिली ।

अनुसूया प्रसाद बहुगुणा हिन्दी के साथ अंग्रेजी के भी प्रकांड विद्वान थे ।

साल 1930 में अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए अपने मेंटॉर बैरिस्टर मुकुंदी लाल का साथ छोड़ दिया ।

1930 में हुए नमक सत्याग्रह के दौरान चमोली में भी एक नमक बनाया गया, इसके बाद दुगड्डा कान्फ्रेंस के बाद उन्हें पौड़ी में गिरफ्तार कर लिया गया ।

1931 के बाद उन्होने पहाड़ के कई इलाकों में यात्राएं की जहां पहाड़ों में जनसमस्याओं को उठाने का काम किया । गैरसैण समेत कई स्थानों पर उन्होने अस्पताल बनाए । पक्के पुलों का निर्माण करवाया और पहाड़ों के सर्वांगीण विकास के लिए  प्रयासरत रहे ।

साल 1938 में कांग्रेस के श्रीनगर अधिवेशन से पहले उन्होने जवाहरलाल नेहरू और पंडित विजय लक्ष्मी की ” हिमालय एयरवेज” से बद्रीनाथ यात्रा संपन्न कराई ।

अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को आध्यात्म और यात्राएं करने में खास रूचि थी ।  उन्होने कैलाश मानसरोवर की यात्रा की और वे त्रिशूल पर्वत के बेस बेस कैंप तक भी पहुंचे ।

बद्रीनाथ मंदिर समिति प्रबंधन अधिनियम-

वर्ष 1937 में वे संयुक्त प्रांत की विधानसभा में पहुंचे और बद्रीनाथ में व्यवस्थाओं की बदहाली का मुद्दा उठाया और बद्रीनाथ के पूर्ण सुधारीकरण के लिए विधानसभा में दबाव बनाए रखा । यही कारण है की 1939 में बद्रीनाथ मंदिर समिति प्रबंधन अधिनियम ” अस्तित्व में आया ,इस मूल अधिनियम से बद्रीनाथ की व्यवस्थाएं आज तक चलती आ रही हैं ।

वर्ष 1940 में वे आजादी के आंदोलनों के चलते गिरफ्तार हुए इस दौरान उनका स्वास्थय खराब रहने लगा और उनकी पत्नी का देहांत हो गया । साल 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्होने सक्रियता दिखाई, खराब स्वास्थय के कारण उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया लेकिन वे घर पर नजरबंद रहे ।

उनका स्वास्थ्य उनका साथ छोड़ता रहा और फिर एक लंबी बीमारी के चलते 23 मार्च 1943  में अनुसूया प्रसाद बहुगुणा का निधन हो गया ।

10 अक्टूबर 1974 को गढ़ केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा की याद में उत्तराखंड में अनुसूया प्रसाद बहुगुणा राजकीय स्नातकोत्तर कॉलेज अगस्त्यमुनि की स्थापना की गई थी।

 

 

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