राज्य स्थापना के 22 बरस : क्या यही है शहीदों के सपनों का उत्तराखंड ?

एक महान आंदोलन से निकला उत्तराखंड राज्य आज अपनी स्थापना के 22 बरस पूरे कर चुका है। 22 बरस की इस यात्रा में उत्तराखंड ने कई आयाम हासिल किए हैं, लेकिन इसके बावजूद वे सपने, वे उम्मीदें अब भी अधूरी हैं, जिनके लिए देवभूमि की जनता ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था।

इस सबके बीच एक बार फिर राज्य आंदोलन के उस महान संघर्ष को याद किया जाना लाजमी है, जिसकी बदौलत उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ।

अलग उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे एक ही मकसद था, पहाड़ों का विकास।

उत्तर प्रदेश के दौर में लखनऊ में बैठे सत्ताधीशों को पहाड़ के कष्ट नजर नहीं आते थे। उनकी राजनीति में पहाड़ के सरोकारों को कोई जगह नहीं थी। अगर पहाड़ के सरोकार लखनऊ के लिए मुद्दा होते तो पहाड़ यू लाचार नहीं होते, पहाड़ के लोग अच्छे स्कूलों, अच्छे अस्पतालों, अच्छी सड़कों से महरूम नहीं होते। पहाड़ के युवा रोजगार के लिए पलायन करने को मजबूर नहीं होते।

इसी निराशा ने पहाड़ के लोगों के मन में आक्रोश पैदा किया और उसके बाद अलग राज्य के आंदोलन की लड़ाई के लिए पहाड़ एकजुट हो गया।

80 और 90 के दशक के दौरान राज्य आंदोलन की मांग चरम पर पहुंच चुकी थी। कई संगठन और परिषद बन चुके थे जिन्होंने अपने-अपने स्तर से उत्तराखंड राज्य आंदोलन की मांग को जोरशोर से उठाया। इन संगठनों में सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरा, उत्तराखंड क्रांति दल ।

25 जुलाई 1979 को उत्तराखंड क्रांति दल की स्थापना होने के बाद पहाड़ के सैकड़ो लोग इस संगठन से जुड़े- बच्चे, बूढ़े, युवा सब बड़ी तादाद में राज्य आंदोलन के लिए आगे आए।
आंदोलन का दवाब ही था कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने अपने मंत्री रमाशंकर कौशिक और सपा नेता विनोद बड़थ्वाल की अध्यक्षता में दो समितियों का गठन किया।

इन समितियों ने अलग उत्तराखंड राज्य की मांग को जायज बताते हुए पृथक राज्य की अनुशंसा। मई 1994 को कौशिक समिति ने 8 जिलों को मिला कर पहाड़ी राज्य के गठन की सिफारिश की।

लेकिन इसके जो कुछ हुआ, उसने उत्तराखंडियों को वो जख्म दिए जो आज भी नासूर बन कर हमें दर्द देते हैं।

1 सितंबर 1994 को उत्तर भारत के इतिहास में वो घटना घटित हुई जिस घटना से मुलायम सिंह यादव उत्तराखण्डियों की नज़र में खलनायक बन गए।
उधम सिंह नगर के खटीमा में शांतिपूर्वक ढंग से नारेबाजी कर रहे सैकड़ों आंदोलनकारियों पर अचानक पुलिसकर्मियों ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी।
आंदोलनकारियों को समझ नहीं आया कि ये सब क्या हो रहा है। भीड़ तीतर-बीतर हो गई। सब अपने-आप को बचाने की जद्दोजहद में लग गए। पुलिस की बंदूक से निकली गोली किसी के सिर में किसी के सीने में तो किसी की आंख में जा घुसी। इस अंधाधुंध फायरिंग में 25 लोग शहीद हो गए।

इस घटना को 24 घण्टे भी नहीं बीते थे कि अगले ही दिन 2 सितम्बर को मसूरी में भी पुलिस ने अपनी बर्बरता दिखाई।
खटीमा गोली कांड के विरोध में मसूरी में आंदोलनकारियों ने जुलूस निकाला सैकड़ों की तादाद में आंदोलनकारी सड़को पर थे। ये जुलुस कुछ अलग था। इस जुलूस में आंखों से टपकते आंसू थे, चेहरे पर गुस्सा था, आवाज़ में एक अजीब सी बुलंदी थी और सबसे जरूरी- इस जुलूस में खटीमा गोलीकांड में हुए शहीदों के लिए संवेदना थी।
सब कुछ शान्तिपूर्वक चल ही रहा था कि यहां भी पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसा दी। सब जान बचाने के लिए सुरक्षित स्थान ढूंढने लगे। लेकिन जबतक वे ढूंढते तबतक देर हो चुकी थी। इस गोलीकांड में 7 आंदोलनकारी शहीद हो गए।

इन 2 आंदोलनों ने जनता को खूब आक्रोशित किया।
नतीजन 15 सितम्बर को मसूरी में ही बाटा-घाट कांड हुआ। एक बार फिर सैकड़ो आंदोलनकारी प्रदर्शन करने लगे और पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर लाठीचार्ज किया। भगदड़ मची और बाटा-घाट के संकरे मार्ग से होते हुए कई आंदोलनकारी गहरी खाई में जा गिरे।

हर तरफ शासन और प्रशासन की किरकिरी होने लगी। मुलायम सिंह यादव के राज को लोग गुंडाराज कहने लगे।
इन तीनों घटनाओं के बाद आंदोलनकारियों ने दिल्ली कूच करने का निर्णय लिया। तैयारियां की गई और दिन तय हुआ 2 अक्टूबर 1994 का। पूरा पहाड़ अब वास्तव में पहाड़ बन चुका था। ऐसा पहाड़ जिसे हिला पाना अब न तो किसी प्रशासन के बस में था और न ही सत्ता के राजाओं के बस में।

गाड़ियों में भर-भरकर हज़ारों आंदोलनकारियों ने दिल्ली कूच किया।
लेकिन निहत्थे और मासूम आंदोलनकारियों को कहां पता था कि उनके साथ खटीमा और मसूरी गोलीकांड से भी ज्यादा भयानक घटना होने वाली थी।

हज़ारो की संख्या में आन्दोलनकारी दिल्ली जा ही रहे थे कि मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर सुरक्षाबल पहले ही तैयार बैठे थे। बैरिकेड्स और तमाम साजो-सामान के साथ आंदोलनकारियों को रामपुर तिराहे पर रोका गया। आंदोलनकारियों के हौसले तोड़ने की तमाम कोशिशें की गई। उन्हें रोकने के भी प्रयास किये गए।


लेकिन आंदोलनकारी नहीं माने- अंत में वही हुआ जिसके लिए उत्तर प्रदेश पुलिस कुख्यात हो चुकी थी।
हज़ारो आंदोलनकारियों पर अचानक गोलीबारी शुरू हुई। लाठियां बरसाई गई। महिलाओं को उनके बालों से खींचकर, उन्हें घसीटकर गन्ने के खेतों में ले जाया गया । पहाड़ की महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य को अंजाम दिया गया। बर्बरता के उस मंजर के बारे में सोचने पर आज भी आत्मा कांप उठती है।
उस घटना के दौरान अपने साथी की लाश को हाथ में उठाने वाले आंदोलनकारी सुरेश नेगी उस दिन को याद करके सिहर उठते हैं। उनकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

इस पूरे अमानवीय कृत्य को नाम दिया गया “क्रूर सत्ता की क्रूर हिंसा”

बीबीसी ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान हुई हिंसा को 80 और 90 के दशक में हुई विश्व की सबसे क्रूर और अमानवीय हिंसा कहा था।

रामपुर तिराहा गोलीकांड के बाद भी सत्ता का दमन जारी रहा।
25 नवम्बर 1995 को श्रीनगर के श्रीयंत्र टापू पर आमरण अनशन पर बैठे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने बर्बरता दिखाई। इस घटना में दो आंदोलनकारियों की शहादत हुई।

इसके बाद अलग-अलग स्थानों पर आंदोलन चलता रहा।
अगले साल यानी 15 अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा ने लालकिले की प्राचीर से पृथक राज्य उत्तराखंड निर्माण की घोषणा की।
इसके 2 साल बाद 22 दिसम्बर 1998 को भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने संसद में उत्तराखंड पृथक राज्य विधेयक पेश किया लेकिन सरकार गिर गई और विधेयक पास नहीं हुआ। 2 साल बाद सत्ता में भाजपा की वापसी हुई और संसद में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक को प्रस्तुत किया गया।


1 अगस्त 2000 को विधेयक लोकसभा और 10 अगस्त को राज्यसभा में पारित हुआ। 28 अगस्त को तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने विधेयक को मंजूरी दी। अंततः आंदोलनकारियों का वर्षों का अथक प्रयास रंग लाया और 9 नवम्बर 2000 को देश के 27 वें राज्य के रूप में उत्तराखंड का उदय हुआ। तब उत्तराखंड को उत्तरांचल नाम दिया गया था जिसे ….. में उत्तराखंड किया गया।

तब से अब तक 22 वर्षों की इस यात्रा को लेकर अहम सवाल उठता है, क्या हम ऐसा ही प्रदेश चाहते थे ?
पहाड़ के विकास के लिए राज्य की जो तस्वीर आंदोलनकारियों ने खींची थी, क्या 22 बसर बाद उत्तराखंड वैसा बन पाया है ?

अच्छी शिक्षा, अच्छा रोजगार, अच्छी सुविधाएं इन तमाम मुद्दों के लिए युवा तब भी सड़को पर थे और आज भी सड़कों पर हैं। आंदोलन तो आज भी हो रहा है। हक के लिए। वो हक जो हमें मिलना चाहिए था उस हक को नेता डकार गए। आज़ाद भारत के इतिहास में आज तक इतना पलायन नहीं हुआ जितना राज्य बनने के बाद इन 22 सालों में हो गया। इतनी बेरोज़गारी, इतनी महंगाई और इतने भृष्ट प्रदेश की कभी कल्पना भी उन आंदोलनकारियों ने नहीं कि होगी।
बाइट –

जिन मुद्दों को लेकर पूरा पहाड़ एकजुट हुआ था। जिन मुद्दों के लिए लोगों ने ‘आज दो अभी दो – उत्तराखंड राज्य दो’ का नारा बुलंद किया था, जिन मुद्दों के लिए 40 से ज्यादा लोगों ने शहादत दी थी, वे मुद्दे आज राजनीति के बियाबान में खो चुके हैं।

22 बरस के बाद आज जब आंदोलनकारी ये कहने लगें कि इससे तो अच्छा उत्तर प्रदेश में ही ठीक थे, तो समझा जा सकता है कि 22 बरस के सफर में उत्तराखंड के क्या हासिल किया है !

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