गोबर फेंका गया, गालियां खाई, मगर वो पढाती रहीं : देश की पहली महिला शिक्षिका की कहानी

बात आज से लगभग पौने दो सौ साल पुरानी है। महाराष्ट्र के पुणे जिले के सतारा इलाके में 13 साल के एक किशोर और 9 साल की किशोरी का विवाह हुआ। तब छोटी उम्र में विवाह होना आम बात थी। विवाह के बाद घर की देखभाल और खेतों में काम करना दोनों की दिनचर्या बन चुकी थी।

जब दोनों खेतों में काम कर रहे होते, तब युवक की एक रिश्तेदार महिला अक्सर उन्हें दिन का खाना देने आया करती थी। कहते हैं कि एक दिन इसी तरह वह महिला खेत में खाना देने पहुंची। युवक ने खेत में लगे आम के पेड़ से एक टहनी तोड़ी और उससे दो कलम बना कर अपनी 9 साल की पत्नी और रिश्तेदार महिला को थमा कर दोनों से जमीन पर अक्षर लिखवाना शुरू किया।

सुनने में ये बेहद साधारण घटना लग सकती है, लेकिन उस दिन उस युवक ने अपनी 9 साल की पत्नी को केवल अक्षर ज्ञान नहीं कराया था, बल्कि भारत में स्त्री शिक्षा की नींव डाली थी।

उस नौ साल की किशोरी को भी तब कहां पता होगा कि वह आम की टहनी से एक साधारण अक्षर नहीं बल्कि इतिहास लिख रही हैं।

उस 13 साल के किशोर और 9 साल की किशोरी को पूरी दुनिया ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के नाम से जानती है।

आज उन्हीं सावित्रीबाई फुले का जन्म दिन है, जो बाद में न केवल भारत की पहली महिला शिक्षिका बनीं, बल्कि जिन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल के दरवाजे खोल कर उनकी आजादी का रास्ता तैयार किया।

सावित्रीबाई का जन्म पुणे के निकट नाईगांव में 3 जनवरी, 1831 को एक दलित परिवार में हुआ था। वे अपने पिता खंडोजी नेवसे पाटिल और माता लक्ष्मीबाई की सबसे बड़ी संतान थीं।

मात्र 9 वर्ष की आयु में सावित्री बाई का विवाह पुणे के एक 13 वर्षीय किशोर ज्योतिराव फुले से कर दिया गया।

ज्योतिराव स्कूली शिक्षा हासिल कर चुके थे। 13 वर्ष की बेहद कच्ची उम्र में ही उन्हें शिक्षा की महत्ता समझ आ गई थी और इसी का परिणाम रहा कि उन्होंने अपनी पत्नी को भी तालीम देने का निश्चय कर लिया।

घर पर जब भी वक्त मिलता, ज्योतिराव सावित्री बाई और अपनी रिश्तेदार महिला सगुणा बाई को पढ़ाने का काम करते। अपने पति से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद, सावित्रीबाई ने अहमदनगर में औपचारिक शिक्षा हासिल की जिसके बाद पुणे से शिक्षक प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र हासिल किया।

शिक्षिका बनने की अर्हता हासिल करने के साथ ही सावित्रीबाई ने एक महिला के लिए घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर सार्वजनिक जीवन में सक्रियता की ऐतिहासिक शुरुआत कर दी थी।

इस शुरुआत को 1 जनवरी 1848 को बहुत बड़ी उड़ान मिली, जब उनके पति ज्योतिराव फुले ने पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। यहां लड़कियों को पढ़ाने की जिम्मेदारी मिलते ही सावित्रीबाई फुले देश की पहली महिला शिक्षिका बन गईं। उनका साथ देने का जिम्मा सगुणाबाई और एक मुस्लिम महिला फातिमा शेख ने उठाया। फातिमा शेख, ज्योतिराव फुले के एक दोस्त उस्मान शेख की बेटी थीं।

इस यात्रा में ज्योतिराव फुले और सावित्री बाई फुले को उच्च और संपन्न वर्ग का जो विरोध झेलना पड़ा, उसका जिक्र किए बिना यह कथा अधूरी है।

उस दौर में जब केवल ऊंची जाति के बच्चों को ही शिक्षित होने का अधिकार था, तब हाशिए पर धकेल दिए गए समाज के बच्चों और खासकर लड़कियों को शिक्षित करने की गुस्ताखी करने वाले इस दंपति को समाज का तकतवर तबका आखिर कैसे बर्दाश्त कर पाता ?

स्कूल खोले जाने के बाद फुले दंपति का विरोध शुरू होने लगा। उन्हें भद्दी -भद्दी गालियां दी जाती, लेकिन दोनों ने अपने इरादे डिगने नहीं दिए। फुले दंपति के मजबूत इरादों से बौखलाए उच्च जाति के लोगों ने ज्योति राव फुले के पिता गोविंदराव से दोनों की शिकायत की। लोगों के बढ़ते दबाव को देखते हुए ज्योतिराव फुले के पिता ने उन्हें चेतावनी दी कि वे स्कूल चलाना बंद कर दें वरना घर छोड़ कर चले जाएं। अपने मजबूत इरादे पर कायम ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा की मशाल जालाए रखने के लिए खुशी-खुशी दूसरा विकल्प चुन लिया, यानी घर छोड़ कर आ गए।

इसके बाद भी ऊंची जाति के लोगों ने फुले दंपति का विरोध जारी रखा।

जब सावित्रीबाई फुले अपने घर से स्कूल के लिए निकलतीं तो रास्ते में ऊंची जाति के लोग उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां देते, उन पर गोबर और कीचड़ फेंकते। कुछ दिन बाद सावित्री बाई इस विरोध की आदी हो गईं। वे स्कूल जाते समय अपने पास एक और साड़ी रखती थीं। स्कूल पहुंचने के बाद वे गोबर और कीचड़ से सनी साड़ी उतार कर साफ सुथरी साड़ी पहन लेतीं थीं और लड़कियों को पढ़ाने में जुट जातीं। वापसी में फिर से वही गंदी साड़ी पहन लेतीं।

4 साल के भीतर फुले दंपति ने पुणे और उसके आस पास के इलाकों में कुल 18 स्कूल खोले, जहां सभी विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी।

साल 1853 में फुले दंपति ने पुणे में आंदोलन के दौर के एक साथी उस्मान शेख के घर में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की। इसकी स्थापना के पीछे उद्देश्य था गर्भवती विधवा महिलाओं को आत्महत्या से बचाना।

दरअसल उस दौर में गरीब परिवार की बेटियों की शादी बहुत कम उम्र में, उम्रदराज लोगों से कर दी जाती थीं। ऐसे में पति के निधन के बाद उन्हें बाल विधवा के तौर पर बेहद दुखदायी जीवन जीना पड़ता था। गर्भवती विधवाओं का जीवन तो इतना ज्यादा कष्टाकारी होता कि वे आत्महत्या करने को मजबूर हो जाती थीं। ऐसी महिलाओं और उनके गर्भस्थ शिशुओं का जीवन बचाने के लिए बनाए गए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की पूरी जिम्मेदारी सावित्रीबाई फुले ने अपने कंधों पर ली। उस गृह में बेसहारा गर्भवती विधवा महिलाओं की देखभाल की जाती और उनका सुरक्षित प्रसव कराया जाता। इन्हीं बाल विधवाओं में से एक के नवजात शिशु को सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले ने गोद लिया, जिसका नाम यशवंत रखा।

बड़े होकर यशवंत ने डॉक्टर बन कर अपने माता पिता की विरासत को आगे बढ़ाया।

1890 में पति ज्योतिराव फुले का निधन होने के बाद सावित्रीबाई ने तमाम वर्जनाओं को तोड़ते हुए खुद उनका अंतिम संस्कार किया। पुरुष वर्चस्व वाले समाज में उनका यह कदम बेहद बहादुरी भरा था।

सावित्री बाई ने एक लेखिका के रूप में भी अपना योगदान दिया। उन्होंने कविताओं और लेखों के माध्यम से उस समय की बुराइयों के खिलाफ लोगों को जागरुक किया।

साल 1897 में पुणे शहर में प्लेग की महामारी फैल गयी। तब सावित्रीबाई फुले ने अपने ड़क्टर बेटे यशवंत के साथ बीमार लोगों की दिन रात सेवा की। इस दौरान वे खुद भी प्लेग के संग्रमण में आ गई। 10 मार्च 1897 को 66 वर्ष की उम्र में उन्होंने इस संसार से विदा ली और अमर हो गईं।

आजादी से 100 साल पहले महिलाओं की आजादी का रास्ता तैयार करने वाली महान शिक्षिका सावित्रीबाई फुले को सलाम।

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