कई चमात्कारिक ऐतिहासिक रहस्यों से भरा है बाबा केदारनाथ का ओंकारेश्वर मंदिर

ऊखीमठ का ओंकारेश्वर मंदिर मात्र एक मंदिर नही बल्कि अपने आप में सदियों का एक गौरवमयी इतिहास की झलक है, आस्था व वास्तुकला किसी भी लिहाज से देखा जाए तो भी ऊखीमठ भारत के सर्वोच्च मंदिरों में से एक है। इसलिए आज हम आपको ओंकारेश्वर मंदिर के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे, जिससे आपको भी इस पौराणिक मंदिर के गौरवमयी इतिहास के बारें में जानकारी हो सके।

       भगवान केदारनाथ का शीतकालीन गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर।

ऊखीमठ स्थित ओंकेरेश्वर मन्दिर रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है, तथा यह मन्दिर भगवान् ओंकारेश्वर (शिव ) को समर्पित है, इसी मन्दिर में भगवान श्री केदारनाथ एवं द्वितीय केदार भगवान् श्री मध्यमहेश्वर जी की शीतकालीन पूजा सम्पन्न होती है,

शीतकाल में जब बाबा केदारनाथ जी के दिव्य धाम के कपाट बन्द हो जाते हैं, तो उनकी उत्सव एवं भोग मूर्ति को डोली एवं छत्र, त्रिशूल आदि प्रतीकात्मक निशानों के साथ ऊखीमठ लाया जाता है, जहां वे 6 माह की शीतकालीन पूजा हेतु ऊखीमठ के गर्भ गृह में प्रतिष्ठित हो जाते है,

इसी भाँति द्वितीय केदार भगवान् मध्यमहेश्वर जी के शीतकाल हेतु जब कपाट बन्द हो जातें हैं तो उनके दिव्य चल विग्रह के साथ ऊखीमठ लाया जाता है, जहाँ ओंकारेश्वर मन्दिर के गर्भ गृह में उनकी भी शीतकालीन पूजा सम्पन्न होती है।

      पंच केदारों का गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर में प्राप्त होता है पंच केदार यात्रा का फल। 
ऊखीमठ मन्दिर पञ्च केदारों का गद्दी स्थल भी है, जहाँ पञ्च केदारों की दिव्य मूर्तियां एवं शिवलिंग स्थापित हैं, प्राचीन मान्यतानुसार ऊखीमठ मन्दिर के दर्शन करने पर पञ्च केदार यात्रा का पुण्य फल प्राप्त होता है, अतएव जो मनुष्य पंचकेदारों की दुर्लभ यात्रा करने में सक्षम नहीं होता, यदि वह मनुष्य ऊखीमठ नामक स्थान में पंच केदारों का दर्शन एवं पूजन करता है, उसे निश्चित रूप से पंचकेदार यात्रा का पुण्य फल प्राप्त होता है।

 

भगवान कृष्ण से जुड़ा है पौराणिक इतिहास। 

ऊखीमठ स्थित ओंकेरेश्वर मन्दिर बाणासुर की पुत्री ऊषा एवं भगवान श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का विवाह सम्पन्न हुआ था, और इसीलिए इस तीर्थ स्थान को भगवती ऊषा के नाम से जाना जाने लगा, और उनके ही नाम पर इस स्थल का नाम ऊषामठ हो गया, किन्तु बाद में अपभ्रंश होकर यह नाम ऊखामठ तथा इसके पश्चात ऊखीमठ हो गया, वर्तमान समय में भी इस अतिशय पुण्य प्रदायक तीर्थ को ऊखीमठ नाम से ही जाना जाता है।
भगवती ऊषा के आगमन से पूर्व इस स्थान का नाम आसमा था, तथा इसी स्थान पर महापराक्रमी सम्राट श्री मान्धाता जी ने भी कठोर तप का आचरण किया था। और उनके कठोर तप के आचरण से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उनको अपने प्रणव स्वरुप अर्थात ओंकार रूप में इस स्थान पर दर्शन दिए थे। और इसीलिए इस स्थान पर अधिष्ठित भगवान् शिव के दिव्य स्वरुप को श्री ओंकारेश्वर महादेव जी के नाम से जाना जाने लगा। इसीलिए ऊखीमठ मन्दिर समूह में स्थित मुख्य एवं भव्य मन्दिर को श्री ओंकारेश्वर मन्दिर ऊखीमठ के नाम से जाना जाता है।
उत्तराखण्ड़ का सबसे विशाल पौराणिक मंदिर समूह है ऊखीमठ मन्दिर समूह। 
सर्वेक्षणों के अनुसार ऊखीमठ मन्दिर समूह जिसमें कि श्री बराही देवी मन्दिर, श्री पंचकेदार लिंग दर्शन मन्दिर ,श्री पंचकेदारगद्दी स्थल, श्री भैरवनाथ मन्दिर, श्री चण्डिका मन्दिर, तथा श्री हिमवत केदार वैराग्य पीठ सहित अन्य मन्दिर तथा सम्पूर्ण कोठा भवन सम्मिलित हैं, यह सम्पूर्ण मन्दिर समूह उत्तराखण्ड के मन्दिरों में क्षेत्रफल तथा विशालता के हिसाब से सर्वाधिक विशाल मन्दिर समूह है।
इस मन्दिर के चारों ओर प्राचीन भव्य भवन निर्मित हैं, जिनकी छत पठालियों से निर्मित की हुई है, मन्दिर समूह चारों ओर से भव्य भवनों से घिरा हुआ है, जिसके चारों ओर ही भवन निर्मित हैं, मन्दिर में प्रवेश करने हेतु बाह्य भवन पर एक विशाल सिंहद्वार निर्मित है, जो मन्दिर में जाने का एकमात्र विशाल मार्ग हैं, यह द्वार भी अत्यंत कलासम्पन्न है , जो कि सुंदरता में श्री बद्रीनाथ मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार के बाद उत्तराखण्ड में द्वितीय स्थान रखता है जबकि प्रथम स्थान पर श्री बद्रीनाथ मन्दिर का मुख्य प्रवेश द्वार है।

 

मुस्लिम शासक महमूद ने किया था ओंकारेश्वर मंदिर पर हमला। 

इतिहासकारों के अनुसार 1027 ई० में मुस्लिम शासक महमूद ने इस मन्दिर पर भी आक्रमण किया था , जिसमें उसने मन्दिर के सभामण्डप की छत को ध्वस्त कर दिया था, किन्तु सभामण्डप की दीवारों तथा गर्भ गृह को ध्वस्त नहीं कर सका था, आक्रमण के पश्चात क्षेत्रीय लोगों ने सभामण्डप की छत पठालियों से निर्मित की, वर्तमान में सभामण्डप की छत सीमेंट से निर्मित की गयी है,
आज भी मन्दिर पर उपस्थित अनेकों चिन्ह आक्रमण की उस मार्मिक कथा को व्यक्त करते हैं,  आज भी यह मन्दिर दिव्य शैली से सुशोभित अपने विराट स्वरुप में उपस्थित है।
प्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में निर्मित विश्व का एकमात्र मंदिर। 
पुरातात्विक सर्वेक्षणों से पता चला है कि यह मन्दिर उत्तराखण्ड के साथ साथ विश्व का भी एकमात्र मन्दिर है , जो सर्वश्रेष्ठ अति प्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में निर्मित है। और यही धारत्तुर परकोटा शैली ही इस मन्दिर की भव्यता और कलात्मकता का प्रतीक है।
पुरातात्विक सर्वेक्षणों के अनुसार प्राचीनकाल में श्री काशी विश्वनाथ (वाराणसी) तथा सोमनाथ मन्दिर के अलावा अन्य किसी भी मन्दिर पर यह दिव्य तथा प्राचीन शैली उपस्थित नहीं थी, किन्तु मुस्लिम शासकों ने शेष इन दो मन्दिरों पर आक्रमण कर इनका विध्वंश कर दिया था, जिससे इन मन्दिरों पर उपस्थित दिव्य शैली नष्ट हो गयी थी, वर्तमान समय में उत्तराखंड स्थित यह मन्दिर ही विश्व का एकमात्र मन्दिर शेष बचा है जिसपर यह दिव्य शैली उपस्थित है।

जबकि उत्तराखण्ड के अधिकतर मंदिर या तो कत्यूरी शैली में निर्मित हैं , या नागर शैली में निर्मित किये गये हैं। धारत्तुर परकोटा शैली आज से 4700 वर्ष पूर्व ही पाई जाती थी। आज के युग में धारत्तुर परकोटा शैली विलुप्त हो गयी है। धारत्तुर परकोटा शैली में बने होने के कारण इस भव्य मन्दिर के गर्भ गृह पर बाहर से 16 कोने हैं, तथा भीतर से 8 कोने हैं, जिनको विभिन्न अट्टालिकाओं से आवेष्टित स्तम्भ पृथक पृथक करते हैं, धारत्तुर असन्याक्षक जो की मन्दिर पर उपस्थित भव्य प्रभाएँ निर्मित हैं,
उनको इस शैली के अनुसार अंगूर के पत्रों के सदृश मन्दिर की मध्यान्तक प्रभा पर उकेरा गया है। तथा इस प्रभा के नीचे गवाक्ष रंध्रों से ऊपर की और जाती हुई स्मलिक पट्टिकाएं ऊपर की ओर उकेरी गयी हैं। जिनके मध्य में अति भव्य मृणाल पिण्ड उकेरे गये हैं। मन्दिर की सभी स्मलिक पट्टिकाओं पर काण्डिल्य श्रुतक भी उकेरे गये हैं।
तथा इन श्रुतकों से होकर ही पट्टियां गर्भ गृह के शिखर तक जाती हैं। जहां वे एक विशाल चबूतरे के साथ मिलकर खत्म हो जाती हैं। गर्भ के मध्यान्तक दीर्घ प्रभा के नीचे की ओर प्रत्येक खण्ड पर भौमिक रेखाएं उकेरी गयी हैं। जो की कृतान्तक पटल के साथ भूमि तक जाती हुई उकेरी गयी हैं। गर्भ गृह के शिखर पर छेनमल्लमत्रिकाऐं चारोँ दिशाओं की ओर से उकेरी गयी हैं।
इस मन्दिर की भव्यता का परम् रहस्य धारत्तुर परकोटा शैली ही है, जो कि इसे अन्य मन्दिरों से भिन्न स्वरुप देतीं हैं, मन्दिर के गर्भ गृह को ध्यान से देखने पर इसपर उपस्थित शैली उजागर हो जाती है, क्योंकि ऐसी अत्यंत भव्य एवं प्राचीन शैली उत्तर भारत तथा वर्तमान में विश्व के अन्य किसी मन्दिरों पर नहीं देखी गयी है, और इसी शैली में निर्मित होने के कारण श्री केदारनाथ जी का दिव्य मन्दिर अपनी विशालता के आधार पर उत्तराखण्ड के सभी प्राचीन मन्दिरों में प्रथम स्थान रखता है।
इसी धारत्तुर परकोटा शैली ने इस मन्दिर को अपनी सुन्दरता के कारण उत्तराखण्ड के सभी प्राचीन मन्दिरों में अपनी वास्तुकला तथा कलात्मकता के आधार पर प्रथम स्थान पर टिकाये रखा।

 

आज तक नही हुआ ओंकारेश्वर मंदिर का र्जीर्णोद्वार, 12.8 रिएक्टर पैमाने वाले विनाशकारी भूकंप को झेल सकता है ओंकारेश्वर मंदिर। 

पुरातात्विक सर्वेक्षणों के अनुसार इस मन्दिर के पाषाणों पर उपस्थित शैवालों का अध्ययन किया गया, जिससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि यह मन्दिर बहुत ही प्राचीन है, और इस मन्दिर पर जो पाषाण लगे हुए हैं उन पर ग्रेनाइट की अधिक मात्रा है, इसी कारण यह मन्दिर प्राचीन समय से ही प्रकृति के अनेकों प्रकोपों को झेलकर भी अपने स्थान पर अडिग बना हुआ है, जबकि कत्यूरी शैली के अधिकांश मन्दिर के पाषाणों पर स्फटिक सिल्ट की मात्रा अधिक थी, जिससे समय समय में विकृत होने पर इनका जीर्णोद्धार करवाया गया।
आदि गुरु शंकराचार्य जी के आगमन से पूर्व भी कई प्राचीन मन्दिर निर्मित थे, जिनमें केवल ऊखीमठ मन्दिर को छोड़कर शेष मन्दिर जीर्णोद्धार करने की स्थिति में आ गये थे। प्रमाणिक तथ्यों के अनुसार आजतक भी इस मुख्य मन्दिर पर कभी जीर्णोद्धार की आवश्यकता नहीं पड़ी है। क्योंकि धारत्तुर परकोटा शैली की विशेषता यह होती है , कि उसमें पाषाणों को भीतर से घुमाकर स्टोन वेलडिंग करके लगाया जाता था और प्रत्येक शिला के मध्य में एक शिला को सीधा रखा जाता था जो उसका गुरुत्व केंद्र होती थी, और इस प्रकार सम्पूर्ण मन्दिर का गुरुत्व केंद्र एक ही स्थान पर होता है, जो की मध्य स्थित शिला पर आधारित होता है, यदि कभी धरती में भयानक कम्पन्न ( भूकम्प ) हो जाये तो यह मन्दिर इस झटके को आसानी से झेल देता है, क्योंकि भीतर से जो पाषाण घुमाकर पट्टीनुमा लगाये जाते हैं, वो मन्दिर को लचीला बना देते हैं, जिससे कम्पन्न के अनुसार ही मन्दिर भी कम्पन्न करता है और जो इसके गुरुत्व केंद्र पर लगाये पाषाण होते हैं वो इसके बाहरी ढांचे को आपस में जोड़े रखते हैं तथा बाहरी ढांचे को ध्वस्त होने नहीं देते हैं,
वैज्ञानिकों ने भी इस बात की पुष्टि कर ली है कि धारत्तुर परकोटा शैली में बना यह अति प्राचीन मन्दिर भविष्य में आने वाले 12.8 रिएक्टर पैमाने वाले विनाशकारी भूकंप को सरलता से झेल सकता है। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध ।तबींमवसवहपेज ैपत ।तजीनत श्रवीद म्अंदे ने 8 जुलाई 1892 को इस मन्दिर का सर्वेक्षण किया था। इस मन्दिर के सर्वेक्षण करने से जो आश्चर्यजनक तथ्य सामने आये वे आश्चर्यचकित कर देने वाले थे। इन्हीं आश्चर्यजनक तथ्यों का वर्णन उन्होंने इंग्लैड़ की।
 rchaeology की प्रसिद्ध पुस्तक “Lands of gods and architectural style of hindu temples”  के topic no 523 523 में विस्तार से किया है। के वल्र्ड आर्किटेकलोजीकल स्टाइल आॅफ हिन्दु टेम्पल के मुख्य निदेशक के पद को सम्भालते हुए भी उन्होंने इस मन्दिर का एकवर्षीय सर्वेक्षण कर यह निष्कर्ष निकाला कि यह मन्दिर विश्व के सबसे प्राचीन तथा मजबूत मन्दिरों में से एक है। उनके अनुसार इस मन्दिर की निर्माण शैली आज के युग के लिए चमत्कारिक तथा विज्ञान के अति रहस्यमयी तथ्यों को उजागर करती है।
इस शैली में बना यह मन्दिर उत्तर भारत तथा विश्व का एकमात्र मन्दिर है। वैदिक वास्तुकला से सुसज्जित इस मन्दिर का निर्माण ग्रेनाइट पत्थरों से किया गया है , जिनको वैज्ञानिक आधार पर तैयार किया गया था। जिसके अनुसार इन पत्थरों को 5 वर्ष तक मूंगा चट्टानों ¼ calcium carbonate ½ के चूर्ण से बने घोल तथा यव (जौ ) से बने घोल में भिगोकर रखा गया था।

 

इस प्रक्रिया के पश्चात ही इन अति ठोस पाषाणों से इस मन्दिर का निर्माण किया गया था, इस विधि से उपचारित granite stone  से ही इस मन्दिर के गर्भगृह का तथा सभामण्डप की दीवारों का निर्माण किया था, सर्वेक्षणों से यह पता चला है कि विशिष्ट विधि से निर्मित इस मन्दिर की दीवारें सर्वाधिक तन्य तथा अत्यधिक मजबूत हैँ !
इन दीवारों की विशेषता यह है कि इनको stone welding  करके बनाया गया है, यह दीवारें इतनी विशिष्टता के साथ निर्मित हैं कि यह अन्य मन्दिरों की 28 फीट मोटी दीवारों से भी अधिक मजबूत हैं, वैज्ञानिकों को अभी तक यह बात समझ नहीं आ रही कि इस मन्दिर पर की हुई ेstone welding उस युग में किसने की होगी…..?
क्योंकि आज के आधुनिक युग में भी वैज्ञानिक stone welding का आविष्कार नहीं कर सकें हैं, इस मन्दिर के निर्माण में छुपी इंजीनियरिंग का लोहा विदेशी वैज्ञानिकों ने भी माना है, प्राचीनकाल से ही इस मन्दिर के निर्माण के श्रेय को स्वयं के हक में दिलवाने का प्रयास अनेकों शासकों ने किया था, कत्यूरी राजाओं ने भी इस मन्दिर के निर्माण का श्रेय स्वयं को दिलाना चाहा जिसमें वे पूर्णतया सफल भी रहे !
किन्तु वर्तमान में पुरातत्ववेत्ताओं ने पुनः हस्तक्षेप कर कत्यूरी राजाओं के मत का खण्डन कर दिया तथा यह सिद्ध किया कि यह मन्दिर अतिशय प्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में निर्मित किया गया था, आज इस अति विशिष्ट शैली के कारण ही यह मन्दिर प्राचीन काल से ही प्रकृति के अनेकों प्रहारों को झेलकर भी जस का तस बना हुआ है।

 

इस मन्दिर की विभिन्नता और भी कारणों से पता चलती है , जैसे कि रू् यही मन्दिर विश्व का एकमात्र प्राचीन मन्दिर है , जिसके द्वार रक्षक अर्थात् द्वारपाल के रूप में भगवान् श्री ब्रह्मदेव तथा श्री हरि विष्णु जी हैं ! जिनकी भव्य मूर्तियाँ मन्दिर के द्वार पर द्वारपाल के रूप में स्थापित हैं, अन्यत्र किसी भी मन्दिर में भगवान् ब्रह्मदेव एवं श्री विष्णु भगवान् की मूर्तियाँ द्वारपाल के रूप में स्थापित नहीं है।

दूसरी विभिन्नता यह है, कि विश्व के मात्र 3 हिन्दू मन्दिरों पर दिव्य पंचशीर्षाभिमुखी कलश लगे हुए हैं और इन कलशों को तीनों मन्दिरों पर भिन्न भिन्न धातु के साथ मिलाकर बनाया गया है इन 3 मन्दिरों के नाम जिनपर पंचशीर्षाभिमुखी कलश स्थापित हैं-
१- श्री केदरनाथ मन्दिर पर उपस्थित कलश – श्री केदारनाथ मन्दिर का दिव्य पंचशीर्षाभिमुखी कलश भीतर से मोटी ताम्र धातु तथा बाहर से स्वर्ण धातु का बनाया गया था, जो कि वर्तमान समय में मन्दिर पर उपस्थित नहीं है , क्योंकि कुछ वर्ष पूर्व वह दिव्य कलश मनुष्य के लालच की भेंट चढ़ गया, और वर्तमान में उस कलश के स्थान पर जांभलुकी श्रेणी का कलश स्थापित किया गया है ।
२- श्री ओंकारेश्वर मन्दिर (ऊखीमठ) पर उपस्थित कलश श्री ओंकारेश्वर मन्दिर ऊखीमठ पर स्थापित भव्य पंचशीर्षाभिमुखी कलश भीतर से मोटी रजत धातु तथा बाहर से स्वर्ण धातु से निर्मित किया गया था, जो आज भी उसी स्वरुप में मन्दिर के शीर्ष को सुशोभित करता हुआ दिखाई देता है।
३- श्री पशुपतिनाथ मन्दिर (नेपाल )पर उपस्थित कलश, श्री पशुपतिनाथ मन्दिर नेपाल पर स्थापित भव्य पंचशीर्षाभिमुखी कलश भीतर से मोटी स्वर्ण धातु और बाहर से भी स्वर्ण धातु से निर्मित किया गया था। जो आज भी उसी स्वरुप में मन्दिर के शीर्ष को सुशोभित करता हुआ दिखाई देता है।
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