“नशा नहीं रोजगार दो” आंदोलन ! पहाड़ में नशे के विरूद्ध छेड़ा गया सबसे बड़ा आंदोलन

देश के तमाम हिस्सों की तरह उत्तराखंड भी शराब और दूसरे नशों की गिरफ्त में बुरी तरह जकड़ा हुआ है। यहां की शांत फिजाओं में जहर घोलने वाले नशे की गिरफ्त में आकर हजारों घर बर्बाद हो चुके हैं। हजारों बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो चुका है।
आलम ये है कि बड़ी संख्या में बड़े-बुजुर्गों से लेकर युवा और नाबालिग, हर वर्ग के लोग न केवल शराब, बल्कि चरस, गांजा और स्मैक जैसे जानलेवा नशे के आदी हो चुके हैं।

पहाड़ में शराब के प्रचलन को लेकर एक मजाकिया कहावत है, सूर्य अस्त – पहाड़ी मस्त। इस कहावत का अर्थ ये है कि शाम होते ही पहाड़ के लोग शराब पीने लग जाते हैं, मगर असल मायनों में अब ये कहावत भी झूठी साबित होने लगी है क्योंकि अब नशे के लिए शाम का इंतजार नहीं होता बल्कि दिन–दोहपर में ही लोग अपना जीवन तबाह करने में जुट जाते हैं।

एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य के सबसे बड़े शहर देहरादून में ही लगभग 15 हजार लोग ड्रग्स की गिरफ्त में हैं। शराब पीने वालों का आंकड़ा इससे चार गुना ज्यादा है।

लेकिन ये आंकड़े हमेशा से ऐसे नहीं थे। पहाड़ की रगों में नशा हमेशा से नहीं दौड़ता था। एक दौर वह भी था जब पूरा पहाड़ नशे का ‘न’ भी नहीं जानता था।

ब्रिटिश हुकूमत के दौर में सन 1861 में कुमांऊ के सीनियर कमिश्नर मिस्टर गाइलस ने एक रिपोर्ट में जिक्र किया था कि अभी भी पहाड़ी लोग नशे से पूरी तरह मुक्त हैं। बाद में धीरे-धीरे शराब और दूसरे नशे प्रचलन में आए और फिर वो हुआ जो नहीं होना चाहिए था। यानी पहाड़ के सुदूरवर्ती गांवों तक नशा पहुंचने लगा।

आजादी के बाद 1980 तक आते-आते नशा पहाड़ की नस-नस में बस चुका था। उसी दौर में पहाड़ के कुछ चेतनाशीन युवाओं ने इस नशे के खिलाफ अभियान छेड़ने का बीड़ा उठाया और जनता को जागरुक करने में जुट गए। उन युवाओं ने आधिकारिक रूप से 2 फरवरी 1984 को अल्मोड़ा जिले के एक गांव बसभीड़ा से एक आंदोलन की शुरुआत की जिसका नाम था ‘नशा नहीं – रोजगार दो आंदोलन’

इस ऐतिहासिक आंदोलन को आज 36 साल पूरे हो गए हैं। आइए, ‘नशा नहीं- रोजगार दो आंदोलन’ के बारे में विस्तार से जानते हैं।
इतिहासकार बताते हैं की आधिकारिक रूप से पहाड़ में शराब की बिक्री 1880 से शुरू हुई जब अंग्रेजों ने पहाड़ी इलाकों में शराब की दुकानें खोली, यानी 1880 से पहाड़ों में शराब का प्रचलन आरंभ हुआ।

पहाड़ में पहली बार नशे का विरोध-

साल 1882 में पहाड़ में नशे का पहली बार विरोध हुआ । जब ये विरोध बढने लगा तो तत्कालीन ब्रिटिश कमिश्नर मिस्टर रैमजे ने कहा- पहाड़ में शराब का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं होता और मुझे उम्मीद है की कभी होगा भी नहीं।

लेकिन सच ये था की पहाड़ों में शराब बेची जा रही थी और धीरे-धीरे इसमें असाधारण वृद्धि होने लगी। हालांकि समय-समय पर नशे के विरोध में आवाजें उठती रही और कई जगह पर आंदोलन भी हुए लेकिन इन आंदोलनों का कोई खास फर्क नहीं पड़ा।

आजादी के बाद सन 60 के दशक में पहाड़ में नशा सर चढकर बोलने लगा था। दूसरी तरफ नशे के खिलाफ गुस्सा भी बढने लगा था। नशे के खिलाफ सबसे ज्यादा गुस्सा महिलाओं के मन में था। पहाड़ में नशा भले ही पुरुष करते थे, लेकिन इसका सबसे ज्यादा नुकसान महिलाओं को उठाना पड़ता था। महिलाएं नशे के चलते अपने पति, भाई और बच्चों को बर्बाद होते देखने को मजबूर थीं।

साल 1965 तक आते-आते टिहरी, पौड़ी, अल्मोड़ा, और पिथौरागढ समेत कुछ और जिलों में नशे के विरूद्ध आंदोलन तेज होने लगे। इस दौर में कई जगहों पर शराब के ठेके बंद करवा दिए गए।

पहाड़ में पहली बार शराबबंदी लागू-

धीरे-धीरे आंदोलन तेज होने लगा जिसके परिणामस्वरूप 1 अप्रैल 1969 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने पहाड़ के कई जिलों में शराबबंदी लागू कर दी।

दो साल तक ये शराबबंदी लागू रही, लेकिन 14 अप्रैल 1971 को इलाहबाद हाइकोर्ट ने शराबबंदी को अवैध करार देते हुए इस पर लगी रोक को हटा दिया।

सरकार ने इस रोक का कोई विरोध नहीं किया उल्टा आबकारी नियमों में परिवर्तन कर शराब के ठेकों के लिए नए लाइसेंस जारी कर दिए। सरकार के इस कदम का काफी विरोध हुआ। 20 नवंबर 1971 को टिहरी में हजारों लोगों ने प्रदर्शन कर इस निर्णय का विरोध किया।

आंखिरकार सरकार को आंदोलन के आगे झुकना पड़ा और पहाड़ के पांच जिलों में पुनः शराबबंदी लागू कर दी गई।
लेकिन शराबबंदी के आदेश से पहले ही पहाड़ में शराब माफिया की घुसपैठ हो चुकी थी। इसका परिणाम ये हुआ कि सरकारी शराबबंदी के बावजूद माफिया के जरिए शराब घर-घर पहुंचने लगी। यहां तक कि पौराणिक तीर्थ स्थलों तक भी नशा पहुंच गया।

दूसरी तरफ शराब के खिलाफ लोगों का गुस्सा भी पहले से ज्यादा बढ़ने लगा था। 80 के दशक में कुमाऊं मंडल में चेतनाशील युवाओं की एक टोली नशे के खिलाफ बड़े जनांदोलन की बुनियाद तैयार करने लगी थी।

नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन की आधिकारिक शुरूआत-

2 फरवरी 1984 को इस टोली ने आधिकारिक रूप से अल्मोड़ा के बसभीड़ा गांव में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के बैनर तले ‘नशा नहीं – रोजगार दो’ आंदोलन की शुरूआत की। इस आंदोलन में सबसे ज्यादा सक्रियता महिलाओं ने दिखाई।

इसके बाद आंदोलन असाधारण तेजी से फैला और अल्मोड़ा जिले के मासी, भिकियासैंण, स्याल्गे, चौखुटिया, द्वाराहाट, गगास, सोमेश्वर, ताड़ीखेत, कफड़ा, गरुड़, बैजनाथ होते-होते यह आंदोलन अल्मोड़ा जिले की सीमा भी पार कर गया ।

जगह-जगह जनता ने सुरा-शराब के अड्डों पर छापा मारा या सड़को-पुलों पर जगह-जगह गाड़ी रोक कर करोड़ों रुपयों की सुरा-शराब पकड़वाई. इस जहरीले व्यापार में लिप्त लोगों का मुंह काला किया गया, प्रदर्शन, नुक्कड़ नाटक, सभायें होती रहीं. पहाड़ के एक बहुत बड़े हिस्से में जनता में उत्साह और सुरा-शराब के व्यापारियों में आतंक छा गया।

सुरा-शराब की खपत में असाधारण रुप से गिरावट आई. महिलाओं ने निडर होकर घर से बाहर निकलना शुरु किया, सन 84 की होलियां बहुत सालों बाद इन गांवों की महिलाओं व पुरुषों ने एक साथ बड़े उत्साह से मनाई । पहाड़ के ताजा इतिहास में शायद पहली बार किसी आंदोलन में महिलाओं को इतना समर्थन मिला, क्योंकि सुरा-शराब से सबसे ज्यादा महिलायें प्रभावित हो रहीं थीं ।

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने भी नशे और पहाड़ों में बनने वाली कच्ची शराब का टिहरी में पुरजोर विरोध किया ।
ये आंदोलन पहाड़ के कई जिलों तक तेजी से फैला। महिलाएं शराब के ठेके बंद करने के लिए कहीं धरने पर बैठी तो कहीं उन्होने स्थानीय प्रशासन का घेराव किया। कहीं शराब के ठेके तोड़े गए तो कहीं, शराब बेचने वालों का जोरदार विरोध किया गया ।

एल्कोहॉल वाली दवाएं पहाड़ में बैन-

इस आंदोलन की बदौलत पहाड़ों में नशे की तरह इस्तेमाल की जाने की मेडिसीन अशोका लिक्विड का खात्मा हुआ और पहाड़ में आयुर्वेदिक दवाई के नाम पर दी जाने वाली सुरा जिसका अर्थ ही मदिरा होता है उस पर भी हाईकोर्ट ने 18 अक्टूबर 1986 में फैसला सुनाया और इन मादक पदार्थों पर रोक लगा दी गई।

‘नशा नहीं-रोजगार दो’ आंदोलन के समर्थन में सांस्कृतिक समूह जागर ने भवाली से लेकर श्रीनगर तक की पदयात्रा की, और जागरूकता अभियान चलाया। इस पदयात्रा में हजारों लोग जुड़े।

हमारे पहाड़ों ने उस दौर में नशे के विरूद्ध जो आंदोलन छेड़ा उस आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही कि तत्कालीन सरकार ने उन दवाओं पर रोक लगा दी जिनमें 10 फिसदी से अधिक एल्कोहॉल था।

साथ ही जिन दवाओं में 12 प्रतिशत से अधिक एल्कोहॉल का इस्तेमाल किया गया था उनको शराब की श्रेणी में डाल दिया गया। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि जब-जब पहाड़ में शराबंबदी की गई, नशे की तल में डूबे लोगों ने दवाओं के माध्यम से एल्कोहॉल का सेवन करना शुरू किया।

बहरहाल इतने बड़े आंदोलन के बावजूद दुखद सच्चाई यह है कि आज उत्तराखंड नए के दलदल में पहले से कई ज्यादा गहरा धंस गया है। प्रदेश का दुर्भाग्य रहा की जनप्रतिनिधियों ने शराब विरोधी आंदोलन को कभी समर्थन नहीं दिया ।

जिस सत्ता की जिम्मेदारी उत्तराखंड को नशे से बचाना होना चाहिए, उसके लिए शराब राजस्व जुटाने के सबसे बड़े स्रोतों में से एक है।
एक कहावत है, जब बाढ़ ही खेत को खाने लगे तो फसल को कोई नहीं बचा सकता। उत्तराखंड की मौजूदा हालत पर ये कहावत पूरी तरह फिट बैठती नजर आती है।

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