मेजर सोमनाथ शर्मा : कुमाऊं रेजीमेंट के जांबाज, देश के पहले परमवीर चक्र विजेता

आज से 75 साल पहले की बात है। 200 साल की गुलामी के बाद भारत को आजाद हुए अभी तीन महीने भी पूरे नहीं हुए थे, कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में घुसपैठ शुरू कर दी। इस घुसपैठ का एकमात्र मकसद था, समूची कश्मीर घाटी को कब्जे में लेना।

इस नापाक इरादे को अंजाम तक पहुंचाने के लिए पाकिस्तानी फौज ने कबीलाई लस्कर घुसपैठियों की आड़ ली और घाटी के सबसे महत्वपूर्ण शहर, श्रीनगर पर हमला बोल दिया। पाक सेना का सबसे अहम टारगेट था “श्रीनगर का एयरबेस”

इस हमले को अंजाम देने के लिए पाकिस्तान ने 700 घुसपैठियों के साथ बेहद प्लानिंग के साथ धावा बोला, लेकिन भारत के 50 जाबांजो के सामने घुसपैठियों को मुंह की खानी पड़ी और कश्मीर पर कब्जा करने का उसका नापाक इरादा नाकामयाब हो गया।

छह घंटे तक चली आर-पार की इस लड़ाई में भारतीय जांबांजों ने लगभग 200 पाक घुसपैठियों को मौत की नींद सुलाया। 22 भारतीय वीरों ने वतन की मिट्टी की रक्षा करते हुए अपना बलिदान दिया।

देश की तरफ से जिन जांबांजो ने ये ऐतिसासिक लड़ाई लड़ी, उन वीरों का नेतृत्व करने वाले योद्धा का नाम था मेजर सोमनाथ शर्मा, जो एक हाथ पर प्लास्टर चढ़ा होने के बावजूद न केवल इस युद्ध में उतरे बल्कि अपने प्राणों का बलिदान देकर हमेशा-हमेशा के लिए अमर हो गए।

युद्धभूमि में अदम्य वीरता का प्रदर्शन करने वाले मेजर सोमनाथ को सेना के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। परमवीर चक्र सम्मान पाने वाले वे पहले भारतीय जांबाज थे।

मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 को हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के दाढ़ गांव में हुआ था। सोमनाथ शर्मा को विरासत में ही सैन्य माहौल मिला था। उनके पिता अमरनाथ शर्मा भारतीय सेना में मेजर जनरल थे।

बाद में वो इंडियन आर्म्ड मेडिकल सर्विसेज के पहले डायरेक्टर जनरल भी बने थे। सोमनाथ शर्मा के चाचा कैप्टन केडी वासुदेव भी सैन्य पृष्ठभूमि से थे। विश्व युद्ध के समय जापानी हमलावरों के खिलाफ उन्होंने शहादत दी थी।

सैन्य परिवार में रहते हुए सोमनाथ शर्मा का बचपन अलग-अलग जगहों पर बीता। जहां-जहां उनके पिता की पोस्टिंग होती, उनका स्कूल वहीं होता। बाद में उन्होंने नैनीताल के प्रसिद्ध शेरवुड स्कूल से अपनी तालीम पूरी की।

22 फरवरी, 1942 को 4-कुमाऊं रेजीमेंट में कमीशन ऑफिसर बनने के साथ ही उनके सैन्य जीवन की शुरुआत हुई। उस वक्त द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था । सोमनाथ शर्मा को मलाया के पास भेज दिया गया जहां उन्होंने वीरता का शानदार प्रदर्शन किया और विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने जाने लगे।

मेजर सोमनाथ शर्मा ने अपने साहस और बेखौफ अंदाज से सबको प्रभावित किया । इसके बाद मेजर भारत की सुरक्षा को मजबूत करने और कई अभियानों में सेना का नेतृत्व करते रहे ।

इसके बाद वो दौर आया जब मेजर सोमनाथ शर्मा ने पड़ोसी मुल्क की ओर से किए गए पहले हमले का मुंह तोड़ जवाब देने के लिए कश्मीर में सेना का नेतृत्व करते हुए भारत की जीत और पाकिस्तान की शर्मनाक हार का स्वर्णिम इतिहास लिखा।

22 अक्टूबर 1947 को भारत को सूचना मिली की पाकिस्तान घुसपैठ करने वाला है, अगर ये घुसपैठ कामयाब हो जाती तो भारत के एयरबेस पर दुश्मन का कब्जा होता और हाल ही में आजाद हुआ भारत अपने ताज यानी कश्मीर को हमेशा के लिए गंवा देता। लेकिन मां भारती के रक्षक ऐसा कैसे होने देते !

23 अक्टूबर 1947 की सुबह दिल्ली के पालम एयरपोर्ट से कुमांऊ रेजीमेंट के सैनिकों का दस्ता श्रीनगर पहुंचा। 31 अक्टूबर को कुमांऊ रेजीमेंट के मेजर सोमनाथ शर्मा भी श्रीनगर पहुंचे। उस समय मेजर शर्मा के दाहिने हाथ में प्लास्टर चढ़ा था. क्योंकि हॉकी खेलते समय उनका हाथ फ्रैक्चर हो गया था ।

डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने की सलाह दी थी मगर एक देशभक्त का दिल कहां मानता है। दुश्मन दरवाजे पर हो तो घाव और दर्द नहीं दिखता। मेजर शर्मा ने युद्धक्षेत्र में जाने की अनुमति मांगी जिसके बाद उन्हें न केवल अनुमति मिली बल्कि यूनिट का कमांड सौंप दिया गया।

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दो दिन बाद 2 नवंबर 1947 को खबर मिली कि दुश्मन श्रीनगर एयरबेस से चंद किलोमीटर की दूरी पर बडगांव इलाके में पहुंच गया है. 161 इन्फैन्ट्री ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर एलपी बोगी सेन के आदेश पर मेजर सोमनाथ शर्मा और 50 जवानों की एक टुकड़ी बडगाम रवाना हो गई।

3 नवंबर 1947 को सुबह तकरीबन 6 बजकर 15 मिनट पर मेजर शर्मा और उनकी टीम बगडाम पहुंची, उन्होने बिना देर किए अपनी टुकड़ी को बांटा और तत्काल मोर्चा संभालने का हुक्म दिया। जवानों ने हुंकार भरते हुए यस सर कहा और अपनी-अपनी पोजिशन लेली।

कुछ घंटों बाद तकरीबन 12 बजे बडगांव गांव में दुश्मन की हलचल दिखाई दी । मेजर ने अंदाजा लगाया की ये हलचल तो ध्यान भटकाने के लिए है, उनके मुताबिक हमला पश्चिम से होने वाला था, उनका अंदाजा सही निकला और लगभग ढाई बजे लगभग 700 पाक घुसपैठियों ने भारतीय सेना पर हमला बोल दिया।

देश के जवान तीन तरफ से दुश्मन से घिर चुके थे। लेकिन बावजूद इसके भारतीय जवानों का हौसला बुलंद था। केवल 50 भारतीय वीर 700 घुसपैठियों का मुंहतोड़ जवाब दे रहे थे।

मेजर सोमनाथ शर्मा जानते थे कि यदि बडगांव हाथ से निकल गया तो पूरी घाटी के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। इसलिए उन्होंने ठान लिया था कि किसी भी सूरत में बड़गाम से पीछे नहीं हटेंगे।

उन्होंने तुरंत ब्रिगेडियर एलपी बोगी सेन को फोन लगाया और बगडाम पोस्ट पर अतिरिक्त सैन्य टुकड़ी भेजने को कहा। इस बीत मेजर सोमनाथ लगातार सैनिकों का हौसला बढ़ाते और उन तक हथियार पहुंचाते रहे। दोनों तरफ से चल रही गोलाबारी के बीच एक वक्त ऐसा भी आया जब दुश्मन भारतीय पोस्ट से मात्र 45 मीटर की दूरी पर पहुंच गया।

तब मेजर सोमनाथ ने हेडक्वार्टर में संदेश भेजा और कहा-

हम भयंकर गोलीबारी के बीच फंसे हैं दुश्मन हमसे सिर्फ 45 मीटर की दूरी पर खड़ा है, हमारे पास उतने सिपाही भी नहीं हैं लेकिन हम हिलेंगे नहीं और दुश्मन को खदेड़ कर ही दम लेंगे । हम आखिरी गोली तक लड़ते रहेंगे ।फिर अचानक एक मोर्टार उनके बिल्कुल करीब आकर फटा और मेजर सोमनाथ शर्मा की शहादत हो गई।

अपने अदम्य साहस के दम पर भारत के ताज. कश्मीर को बचाने वाले मेजर सोमनाथ शर्मा को 21 जून 1950 को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। वे देश के पहले परमवीर चक्र विजेता बने । मेजर सोमनाथ शर्मा ने अपने परिवार को एक पत्र लिखा था ।

उन्होने लिखा-

“मैं अपने सामने आए कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। यहाँ मौत का क्षणिक डर ज़रूर है, लेकिन जब मैं गीता में भगवान कृष्ण के वचन को याद करता हूँ तो वह डर मिट जाता है। भगवान कृष्ण ने कहा था कि आत्मा अमर है, तो फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि शरीर है या नष्ट हो गया। पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ, लेकिन मैं अगर मर गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं एक बहादुर सिपाही की मौत मरूँगा। मरते समय मुझे प्राण देने का कोई दु:ख नहीं होगा। ईश्वर आप सब पर अपनी कृपा बनाए रखे”

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