करीब से जानें पहाड़ों की दीपावली “इगास’ को…
उत्तराखंड का लोकपर्व इगास बग्वाल जो की बूढ़ी दीपावली के नाम से भी जाना जाता है, क्या आप जानते है की पहाड़ों में आखिर क्यों दिवाली के 11 दिन बाद यह पर्व मनाया जाता है ?
पर्व की शुरुवात:
इगास बनाने के पीछे कई कहानियां प्रचलित है उन्हीं में से एक है वीर भड़ माधो सिंह भंडारी की कहानी :
पहाड़ों में जब भी इगास मनाया जाता है यह गीत आप जरूर सुनते होंगे। ” बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई, सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई।” मतलब यह है कि बारह बग्वाल चली गई, लेकिन माधो सिंह लौटकर नहीं आए। सोलह श्राद्ध चले गए, लेकिन माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है। पूरी सेना का कहीं कुछ पता नहीं चल पाया। दीपावली पर भी वापस नहीं आने पर लोगों ने दीपावली नहीं मनाई।
इगास की पूरी कहानी वीर भड़ माधो सिंह भंडारी से ही जुड़ी है। तो जानते है पीछे की कहानी
करीब 400 साल पहले महाराजा महिपत शाह को तिब्बतियों से वीर भड़ बर्थवाल बंधुओं की हत्या की जानकारी मिली, तो बहुत गुस्से में थे। उन्होंने तुरंत इसकी सूचना माधो सिंह भंडारी को दी और तिब्बत पर आक्रमण का आदेश दे दिया। वीर भड़ माधो सिंह ने टिहरी, उत्तरकाशी, जौनसार और श्रीनगर समेत अन्य क्षेत्रों सेयोद्धाओं को बुलाकर सेना तैयार की और तिब्बत पर हमला बोल दिया। इस सेना ने द्वापा नरेश को हराकर, उस पर कर लगा दिया। इतना ही नहीं, तिब्बत सीमा पर मुनारें गाड़ दिए, जिनमें से कुछ मुनारंे आज तक मौजूद हैं। इतना ही नहीं मैक मोहन रेखा निर्धारित करते हुए भी इन मुनारों को सीमा माना गया। इस दौरान बर्फ से पूरे रास्ते बंद हो गए। रास्ता खोजते-खोजते वीर योद्धा माधो सिंह कुमाऊं-गढ़वाल के दुसांत क्षेत्र में पहुंच गये थे। तिब्बत से युद्ध करने गई सेना को जब कुछ पता नहीं चला, तो पूरे क्षेत्र में लोग घबरा गए। शोक में डूब गए। इतना ही नहीं माधो सिंह भंडारी के विरोधियों ने उनके मारे जानें की खबरें भी फैला दी थी। लेकिन वहीं दिवाली के ठीक 11वें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई गई थी।
वही दूसरी कहानी यह भी प्रचलित है की जब भगवान राम जब 14 साल बाद लंका पर विजय प्राप्त करके वापिस दिवाली के दिन अयोध्या आये थे तो उत्तराखंड के पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद पता चली, जिस कारण उन्होंने 11 दिन बाद दिवाली मनाई और इसे बूढ़ी दिवाली का नाम दिया गया।
“भैलू” खेलने की है परंपरा:
भैलू होता है उजाला करने वाला और इसका एक नाम अंधया भी है। इगास के दिन रात को भैलू खेलने की एक परंपरा है। भैलू बनाने में चीड के पेड़ लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसके अन्दर का लीसा काफी देर तक लकड़ी को जलाये रखता है। वही पुराने समय में गांव के लोग मिलकर एक बड़ा भैलू बनाते थे। जिसमें समस्त गांव के लोग अपने-अपने घरों से चीड़ की लकड़ी देते थे। कहा जाता है कि इसे जो उठाता था, उसमें भीत अवतरित होते थे।
जैसे-जैसे समय बिता और गांव खाली होते गए यह परंपरा भी कहीं न कहीं गुम होती गई। लेकिन अब पलायन कर चुके लोग एकबार फिर से इस त्योहार मे अपने गाँव आ रहे है यही इस त्योहार की खूबसूरती है कि अब उत्तराखंड के लोकपर्व को एक नई पहचान मिल रही है। और न सिर्फ प्रदेश के नौजवान बल्कि देश-दुनिया में भी इस पर्व का उल्लेख हो रहा है।