आयरीन पंत : पहाड़ की पगडंडियों से पाकिस्तान की प्रथम महिला बनने का रोमांचक सफर
पाकिस्तान, भारत का पड़ोसी देश ! जिसके साथ भारत के रिश्ते कभी अच्छे नहीं रहे। पाकिस्तान और भारत के रिश्तों का जब भी जिक्र आता है तो बंटवारा, युद्ध, कश्मीर और आतंकवाद जैसे शब्द जेहन में आते हैं। लेकिन उसी पाकिस्तान से उत्तराखंड का एक खास रिश्ता है।
इस रिश्ते की सूत्रधार एक ऐसी महिला हैं, जिन्होंने पुरुष प्रधान और धर्मभीरू समाज में मौजूद तमाम वर्जनाओं को तोड़ते हुए ऊंचा मकाम हासिल किया और इतिहास में हमेशा-हमेशा के लिए दर्ज हो गईं। उन महिला का नाम है – आयरीन पंत।
आयरीन पंत, वह महिला जो विभाजन के बाद नए देश पाकिस्तान की
फर्स्ट लेडी बनीं, जिन्हें ‘मादर-ए-वतन’ की उपाधि से नवाजा गया।
उत्तराखंड के अल्मोड़ा शहर से निकल कर पाकिस्तान की पहली महिला बनने तक का आयरीन पंत का सफर इतना रोमांचकारी और प्रेरणादायी है जिसे सुनने के बाद बहुत से लोग शायद ही पहली मर्तबा इसके सच होने पर यकीन कर पाएं।
तो आइए, आज पहाड़ की पगडंडियों से होकर पाकिस्तन की प्रथम महिला बनने तक की आयरीन पंत की इसी रोमांचकारी जीवनयात्रा से रूबरू होते हैं।
आयरीन पंत का जन्म 13 फरवरी 1905 को अल्मोड़ा के प्रतिष्ठित पंत परिवार में हुआ था। उनके दादा तारादत्त पंत ने धर्म परिवर्तन कर इसाई धर्म अपना लिया था। उनके दादा द्वारा किए गए धर्म परिवर्तन से तब उनकी बिरादरी इस कदर खफा हो गई थी कि उनके परिवार का संपूर्ण बहिष्कार कर दिया गया। उनके दादा उस जमाने के प्रसिद्ध वैद्य थे। धर्म परिवर्तन के बाद उन्होंने अपने बेटे का नाम डेनियल पंत और पोती का नाम आयरीन रूथ मार्ग्रेट पंत रखा गया। इसके पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है।
दरअसल उनके पिता डेनियल पंत उनका नाम आयरीन रखना चाहते थे, जबकि उनकी मां चाहती थीं कि उनका नाम मार्ग्रेट रखा, उनकी नानी उनका नाम रूथ रखना चाहती थीं। इस तरह तीनों की इच्छाओं का सम्मान करते हुए उनका नाम, आयरीन रूथ मार्ग्रेट पंत रखा गया।
आयरीन के पिता डेनियल पंत ब्रिटिश राज में यूपी सचिवालय में कार्यरत थे। ऐसे में शुरुआती तालीम के बाद आयरीन की हाईस्कूल से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई लखनऊ में ही पूरी हुई।
उन्होंने लालबाग से स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एमए किया। वे हमेशा अपनी कक्षा की मेधावी छात्रा रहीं। पुरुष प्रधान उस दौर में आयरीन कितनी होनहार और बहादुर रही होंगी, इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वे एमए की कक्षा में अकेली लड़की थीं। सन 1927 में वे लखनऊ की सकड़ों पर बेफिक्र होकर साइकिल चलाया करती थीं।
एमए की पढाई पूरी करने के बाद आयरीन पंत बढ़-चढ़ कर सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय होने लगी थीं। उन्होंने तत्कालीन उत्तर प्रदेश में कृषि कार्य में लगीं महिला श्रमिकों की स्थिति पर एक शोध किया जिसकी थीसिस को लखनऊ विश्वविद्यालय में सर्वश्रेष्ठ माना गया।
पोस्ट ग्रेशुएशन पूरा करने के बाद उन्होंने कलकत्ता से प्रथम श्रेणी में टीचर्स ट्रेनिंग प्राप्त की और उसके बाद लगभग दो साल तक दिल्ली के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में अध्यापन का काम किया।
इससे पहले उनके जीवन में एक ऐसी घटना घटी जिसने विभाजन के बाद उनके पाकिस्तान की प्रथम महिला बनने की बुनियाद रखी।
सन 1927 की बात है। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारत पर थोपे गए साइमन कमीशन का देशभर में जबर्दस्त विरोध हो रहा था। तब उत्तर प्रदेश की विधान परिषद में भी इस कमीशन का भारी विरोध चल रहा था। इसी बीच एक दिन आयरीन पंत सदन की कार्यवाही देखने विधान परिषद की दर्शक दीर्घा पहुंच गई।
उस दिन मुजफ्फरनगर क्षेत्र से विधायक लियाकत अली खान ने ऐसा जोरदार भाषण दिया, जिसे सुन कर आयरीन पंत बेहद प्रभावित हुईं। उस दिन से लियाकत अली खान के प्रति उनके मन में आकर्षण पैदा हो गया। लियाकत अली खान करनाल के नवाब रुस्तम अली खान के बेटे थे और ऑक्सफोर्ड से पढाई कर भारत लौटे थे। अपनी जबर्दस्त भाषण कला के चलते वे तब हजारों युवाओं के लिए रोलमॉडल थे।
इसके कुछ साल बाद बिहार में भंयकर बाढ़ आई जिसके कारण भारी जानमाल का नुकसान हुआ। तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं ने राहत कार्यों में बढ़चढ़ कर भागेदारी की। आयरीन पंत ने भी तब अपने साथियों के साथ मिलकर नुक्कड़ नाटकों के जरिए राहत प्रभावितों के लिए चंदा जुटाने का जिम्मा लिया। इसी दौरान एक दिन उनकी मुलाकात लियाकत अली खान से हुई और उन्होंने उनसे नाटक देखने के लिए टिकट खरीदने का आग्रह किया।
कहते हैं कि फंड जुटाने के लिए आयरीन पंत लखनऊं में होने वाले नाटक का टिकट बेचने के लिए लखनऊ विधानसभा पहुंची और लियाकत अली खान से मिलकर कम से कम दो टिकटें खरीदने का आग्रह किया। लेकिन लियाकत अली खान ने यह कहते हुए दो टिकट खरीदने से मना कर दिया, कि नाटक देखने के लिए उनके साथ चलने वाला कोई नहीं है। तब आयरीन ने लियाकत अली खान से कहा कि वे दो टिकट खरीद लें, अगर उन्हें साथ चलने के लिए कोई साथी नहीं मिलेगा तो खुद उनके साथ बैठ कर नाटक देखेंगी।
इसके बाद लियाकत अली खान के साथ मुलाकतों का सिलसिला इस कदर बढ़ने कि 1933 में दोनों ने शादी करने का निर्णय ले लिया।
दिलचस्प यह है कि आयरीन से उम्र में काफी बड़े, लियाकत अली खान पहले से विवाहित थे, और और एक पुत्र के पिता भी थे। लेकिन इसके बाद भी आयरीन उनसे शादी के लिए तैयार थीं। आयरीन ने इसके लिए इस्लाम धर्म अपना लिया और शादी के बाद पहले गुल-ए-राणा और फिर राणा लियाकत अली खान के नाम से जानी गई।
लियाकत अली खान से शादी का उनके परिवार ने काफी विरोध किया, लेकिन उनके खून में विद्रोह और कुछ अलग करने का जो गुण था, उसके आगे परिवार का विरोध टिक नहीं पाया। 16 अप्रैल 1933 को उन्होंने लियाकत अली खान के साथ निकाह कर लिया।
इसके बाद वे अपने परिवार के साथ आजादी के आंदोलन में सक्रिय हो गईं।
ये वहीं दौर था मुस्लिमों के लिए अलग देश की मांग के बीज अंकुरित होने शुरू हुआ थे। 1935 में मोहम्मद अली जिन्ना के लंदन वे वापस भारत लौटने के बाद टू नेशन थ्योरी के आधार पर अलग पाकिस्तान की मांग मजबूत होने लगी थी। जिन्ना की भारत वापसी से साफ हो गया था कि तब के तमाम बड़े मुस्लिम नेता भारत का विभाजन कर मुस्लिमों के लिए अलग देश बनाने का इरादा तय कर चुके थे।
लियाकत अली खान मोहम्मद अली जिन्ना के बेहद करीबी लोगों में से थे। ऐसे में पाकिस्तान के गठन में उन्होंने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। निकाह के बाद राणा लियाकत अली खान हो चुकी आयरीन ने भी अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नए देश की बुनियाद डालने में अहम योगदान दिया।
14 अगस्त 1947 को जिन्ना का सपना पूरा हुआ और दुनिया के नक्शे में एक नए देश के रूप में पाकिस्तान दर्ज हो गया।
मोहमद्द अली जिन्ना पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने और लियाकत अली खान प्रधानमंत्री। उसके साथ ही रामा लियाकत अली खान यानी आयरीन पंत पाकिस्तान की प्रथम महिला बन गईं। पति लियाकत के मंत्रिमंडल में उन्हें अल्पसंख्यक और महिला मामलों का मंत्रालय दिया गया। जिस वक्त आरयीन पंत विभाजन के बाद पाकिस्तान गईं तब उनकी उम्र 43 वर्ष थीं, यानी अपने जीवन का बड़ा हिस्सा भारत में गुजारने के बाद वे एक नए देश में इतनी बड़ी जिम्मेदारी संभालने जा रही थीं।
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इस जिम्मेदारी वे पूरी शिद्दत से पालन कर रहीं थीं, कि इस बीच 1951 में उनके पति लियाकत अली की हत्या हो गई। पति की हत्या ने आयरीन को बुरी तरह तोड़ दिया। और वे धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से हटने लगीं। लेकिन उनके अनुभव और राजनीतिक कौशल को जानते हुए पाकिस्तान के अलग-अलग प्रधाममंत्रियों ने उन्हें नई-नई जिम्मेदारियां दीं। वर्ष 1954 में उन्हें नीदरलैंड में पाकिस्तान का राजदूत बनाया गया। छह वर्ष तक नीदरलेंड में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व करने के बाद उन्हें इसी जिम्मेदारी के साथ इटली भेजा गया। सन 1973 में जुल्फिकार अली भुट्टो ने उन्हें सिंध प्रांत का गवर्नर बनाया। वे कराची विश्वविद्यालय के कुलाधिपति पद पर भी रहीं। तमाम अहम जिम्मेदारियों को निभाने के बाद सन 1990 में 86 साल की उम्र में कराची में उन्होंने अंतिम सांस ली।
पाकिस्तान सरकार ने उनके योगदान को देखते हुए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान निशान-ए-पाकिस्तान से सम्मानित किया। इस सम्मान को पाकिस्तान में भारत रत्न के समकक्ष माना जाता है।
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