कैसे बनी थी देश की पहली गढ़वाली फिल्म ‘जग्वाल’?
दिन था 4 मई 1983 ! रोजाना की तरह दिखने वाली दिल्ली में सब कुछ वैसा ही था | रोज़ की तरह काम पर जाते लोग, दुकाने भी रोज़ की तरह खुली थीं, सब्जी वाले रोज़ की ही तरह चिल्ला कर सब्जी बेच रहे थे, जरुरी सामन की दुकानों पर रोज़ की तरह भीड़ थी लेकिन एक जगह कुछ अलग सी दिखाई पड रही थी और वो जगह थी रफ़ी रोड पर स्थित मावलंकर औडीटोरियम | उस रोज़ मावलंकर औडिटोरियम के बाहर बहुत भीड़ थी और भीड़ इतनी की भीड़ को काबू करने के लिए लोकल पुलिस का सहारा लेना पड़ा | ये भीड़ थी एक फिल्म देखने के लिए , फिल्म जो भारत के इतिहास में पहली गढ़वाली फिल्म थी फिल्म का नाम था जग्वाल | हालाँकि फिल्म के टिकट की कीमत मात्र पांच रूपये रखी गई थी लेकिन इसे अंत तक 100 रूपये में भी ब्लैक में बेचा गया, कारण था सिनेमाहाल के आगे लगातार बेकाबू होती भीड़ |
जग्वाल का अर्थ है लम्बे समय का इंतज़ार ! और नाम के ही अनुरूप इस फिल्म की कहानी भी ऐसी ही है | फिल्म कहानी है एक युवा महिला की जिसका नाम इंदू है और इन्दू की उसकी शादी के दिन दूल्हे के छोटे भाई का पुजारी के साथ झगडा हो जाता है जिसमें दूल्हा भी बीच में आता है और फिर पुजारी को गंभीर चोटें आ जाती हैं और शादी की रात को ही पुलिस दूल्हे को उठा लेती है और उसे 10 साल की कैद हो जाती है और ऐसे में दूल्हा दुल्हन को कहता है की वो उसका इंतज़ार ना करे और उसके छोटे भाई से शादी कर ले लेकिन दुल्हन इन्दू मना कर देती है और 10 साल का लम्बा इंतज़ार चुनती है जिसके बाद इन्दू अपने ससुराल में कई दुःख और कठिनायों भरा जीवन जीती है और दुल्हे का इंतज़ार करती है और अंततः दूल्हे के आने से इन्दू का सारा संघर्ष मानो ख़त्म सा हो जाता है | फिल्म में इन्दू का कठिन जीवन जीना उत्तराखंड के मूल पहाड़ियों के संघर्ष को दर्शाता है जिसमें दूर तक पानी लेने जाना, खेत में जाना और ऐसे कई संघर्ष मौजूद हैं |
इस फिल्म में नायक के रूप में थे विनोद बलोदी और नायिका के रूप में थीं कुसुम बिष्ट | फिल्म को बनाया था निर्देशक पराशर गौड़ ने जो फिल्म से पहले गढ़वाली साहित्य और रंगमंच के मंझे हुए कलाकार थे | इस फिल्म के गानों में उदित नारायण और अनुराधा पौडवाल जी ने अपनी आवाज़ दी | कहा जाता है की उदित नारायण उन दिनों अपने जीवन के स्ट्रगलिंग फेज में थे और जग्वाल उनकी शुरूआती फिल्मों में एक थी |
कहते हैं की क्रांति की ज्वाला हमेशा समजिक उपहासों से ही पैदा होती है पराशर गौड़ एक फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन गढ़वाली में | जब ये बात उन्होंने अपने दोस्तों से साझा की तो दोस्त उनपर हंसने लगे और कहने लगे की गढ़वाली फिल्म कौन देखेगा ? बात इतनी फैली की वे जब कहीं जाते तो लोग उन्हें कहते की देखो आ गया गढ़वाली प्रोड्यूसर | समाज में हंसी का पात्र होना सबसे बड़ी नाकामी है लेकिन हर असाधारण बात पर पहले लोग हँसते ही है ये बात उन्हें पता थी इसलिए पराशर गौड़ हिले नहीं, वे फिल्म बनाने के लिए आर्थिक सहायता भी चाहते थे लेकिन उन्हें मिली नहीं बाद में मदद मिली मगर उधार के रूप में जो उन्होंने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से लिया फिल्म एक महीने से भी कम समय में और लगभग साढे आठ लाख रूपये के बजट मे बनी | फिल्म को पहली बार रिलीज करने के लिए भी निर्माताओं ने बहुत जद्दो-जहद की | लेकिन जब फिल्म रिलीज हुई तो फिल्म ने गढ़वालियों और पहाड़ियों के दिल में मानो विशेष जगह बना ली | इस फिल्म ने सबसे ज्यादा असर डाला दिल्ली में रहने वाले पहाड़ियों के मन पर जो बहुत समय पहले पहाड़ छोडकर दिल्ली बस गये इस फिल्म से उन्हें अपने गाँव की स्मृतियाँ याद आने लगीं ये फिल्म उस समय फिल्म लगभग एक हफ्ते तक हाउसफुल रही, ब्लैक टिकट्स में बिकने के बावजूद भी |
हालाँकि इन्टरनेट पर इस समय फिल्म का आधिकारिक प्रिंट उपलब्ध नहीं है जो हमारे लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है |