अंकिता हत्याकांड : जिस सिस्टम ने पांच दिन तक उस मासूम की गुमशुदगी पर ‘एक्शन’ नहीं लिया, उससे ‘न्याय’ की उम्मीद उम्मीद आखिर कैसे की जाए ?
पहाड़ की बेटी अंकिता भंडारी की हत्या ने उत्तराखंड की अस्मिता और यहां की बेटियों की सुरक्षा को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
18 सितंबर को वनंतरा रिसॉर्ट से गायब हुई बेटी की तलाश में लगे पिता को चार दिन तक दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर किया जाता रहा।
जिस तंत्र को गुमशुदगी की शिकायत पर तत्काल एक्शन लेना चाहिए था, वो चार दिन तक बेटी को गायब करवाने वालों के इशारों पर नाचता रहा।
जब किसी तरह 22 सितंबर को पुलिस को मामला ट्रांसफर हुआ तो उसके बाद बेटी की सलामती की नहीं बल्कि हत्या की दुखद खबर मिली।
दिल को झकझोर देने वाली इस घटना ने एक पिता से उसकी बेटी, एक मां से उसका भरोसा और एक भाई से उसकी उम्मीद ही नहीं छीनी बल्कि लाखों पिताओं, लाखों मांओं और लाखों भाइयों के मन में अपनी बेटियों और बहनों की सुरक्षा को लेकर डर का ऐसा माहौल पैदा कर दिया है, जिसके लंबे वक्त तक खत्म होने की कोई आस नजर नहीं आती।
जरा सोचिए, दरिंदों ने इस हत्याकांड को उस पर्यटक नगरी ऋषिकेश से सटे इलाके में अंजाम दिया जहां किसी एक सीजन में नहीं बल्कि बारहों महीने दुनिया भर के पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता है।
उस ऋषिकेश में, जहां आए दिन वीआईपी मूवमेंट के चलते पुलिस और सुरक्षा तंत्र का मजबूत पहरा माना जाता है।
वो ऋषिकेश, जिसे न केवल पर्यटक नगरी बल्कि धर्म नगरी के नाम से भी जाना जाता है, वहां दरिदों ने बिना किसी डर के एक 19 साल की युवती को मौत के मुंह में धकेल दिया और एक गरीब परिवार का सब कुछ खत्म कर दिया।
जरा सोचिए, 19 साल की उम्र में एक युवा मन अपने सुनहरे भविष्य को लेकर कितने सपने देखता होगा।
लेकिन मासूम अंकिता के वे सपने अब कभी पूरे नहीं हो सकेंगे।
अंकिता की हत्या की यह दुखद घटना उत्तराखंड में कामकाजी युवतियों की सुरक्षा पर बड़ा सवाल है।
इस हत्याकांड ने बता दिया है कि जिस देवभूमि को सबसे शांत माना जाता है, वहां की आबोहवा को दरिंदों की बुरी नजर लग चुकी है।
इस घटना ने उत्तराखंड में नागरिक सुरक्षा तंत्र और उसकी कार्यप्रणाली पर भी कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। साथ ही इस तंत्र में काम करने वाले कारिदों की संवेदनशीलता और ड्यूटी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को भी सवालों के घेरे में ला दिया है।
इसके साथ ही राजस्व प्रशासन और पुलिस प्रशासन के बीच झूलते लाचार उत्तराखंडियों की हकीकत भी इस घटना ने सामने लाकर रख दी है।
इस दु:खद घटना के जरिए एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि, भले ही ये राज्य आम जनता के संघर्षों की बदौलत हासिल हुआ हो, लेकिन 22 साल बाद भी आम जनता की यहां कोई सुनवाई नहीं है। यहां का तंत्र भी खास और रसूखदारों के इशारों पर नाचता है।
अगर ऐसा नहीं है, तो फिर एक 19 साल की युवती की गुमशुदगी की गंभीर घटना का संज्ञान क्यों पहले दिन ही नहीं लिया गया ?
एक लाचार पिता को पटवारी और पुलिस क्षेत्र के बीच उलझाने के बजाय क्यों सिस्टम की पहली प्राथमिकता उनकी बेटी की तलाश करना नहीं रहा ?
जिस प्रशासन को पीड़ित परिवार के साथ खड़ा रहना चाहिए था, उनकी रिपोर्ट लिख कर बिना समय गंवाए तलाशी अभियान चलाना चाहिए था, क्यों वह इसके बजाय आरोपियों के साथ खड़ा दिखा ?
और सबसे अहम बात, इन चार दिनों में क्यों तमाम प्रतिनिधियों की जुबान खामोश रही ?
जब अंकिता के परिजनों को दर-दर भटकाया जा रहा था तब क्या किसी ने सरकार के किसी नुमाइंदे को अंकिता के बेबस पिता के साथ खड़ा पाया ?
इस मामले में एक अहम तथ्य यह है कि अंकिता की हत्या का मुख्य आरोपी पुलकित आर्य, हरिद्वार के प्रभावशाली माने जाने वाले भाजपा नेता विनोद आर्य का पुत्र है.
इस घटना के बाद विपिन शर्मा की मुख्यमंत्री धामी और डीजीपी उत्तराखंड समेत तमाम भाजपा नेताओं के साथ तस्वीरें वायरल हो रही हैं.
हालांकि आज भाजपा ने विनोद आर्य को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है, लेकिन इससे क्या अंकिता की जिंदगी लौटाई जा सकती है ?
आज जब एक पहाड़ी परिवार का सब कुछ खत्म हो चुका है, तब उसे न्याय दिलाए जाने का भरोसा दिया जा रहा है.
लेकिन जिस सिस्टम ने पांच दिन तक उस मासूम की गुमशुदगी की सुध नहीं ली, उससे न्याय की उम्मीद उम्मीद आखिर कैसे की जाए ?