पहाड़ के चितेरे लोकगायक हिरदा को नमन
त्यौर पहाड़,म्यौर पहाड़
रौय दुखों को ड्यौर पहाड़
बुजुरगूं लै ज्वौड़ पहाड़
राजनीति लै त्वौड़ पहाड़
ठेकेदारुं लै फ्वौड़ पहाड़
नानतिनू लै छ्वौड़ पहाड़
ग्वल न गुसैं,घेर न बाड़
त्यौर पहाड़,म्यौर पहाड़…
इन पंक्तियों का अर्थ है – तेरा पहाड़, मेरा पहाड़, इस पहाड़ में हमेशा दुखों का बसेरा रहा। इस पहाड़ को बुजुर्गों ने अपनी मेहनत से जोड़ा लेकिन राजनीति ने तोड़ दिया, ठेकेदारों ने तबाह कर दिया और नौजवानों ने पलायन की मजबूरी में छोड़ दिया।
इस पहाड़ का कोई पूछने वाला नहीं, ये तेरा पहाड़ है, ये मेरा पहाड़ है!
उत्तराखंड के पहाड़ी हिस्सों की स्याह हकीकत का ऐसा मार्मिक वर्णन करने वाले, ठेठ पहाड़ी लोकगायक हीरा सिंह राणा (हिरदा) का आज जन्मदिन है। अपना पूरा जीवन पहाड़ के सुख-दुखों को समर्पित करने वाले हीरा सिंह राणा जी का जन्म 16 सितंबर 1942 को अल्मोड़ा जिले के मनीला के डढूली गांव में हुआ था।
उनके पिता का नाम मोहन सिंह और माता का नाम नारंगी देवी था। युवावस्था में ही हीरा सिंह राणा ने गीत लिखने की शुरुआत कर दी थी। उन्होंने पहले स्थानीय स्तर पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गीत गाने शुरू किए। धीरे-धीरे उनकी ख्याति फैलने लगी। 70 के दशक में हीरा सिंह राणा अपने गीतों के माध्यम से जाना पहचाना नाम बन गए।
उन्होंने देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी तमाम मंचों में अपनी प्रस्तुतियां दीं। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौर में उन्होंने ‘लस्का कमर बांधा, हिम्मत का साथा, भोल फिर उज्याली होली, कालै रैली राता’ जनगीत रचा जिसका हिन्दी भावार्थ कुछ इस तरह है- हिम्मत के साथ अपनी कमर कस लो, कल फिर उजाला होगा और अंधेरा खत्म हो जाएगा।
इन जनगीत ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन में जबर्दस्त चेतना का संचार किया।उत्तराखंड राज्य गठन के बाद भी वे लगातार राज्य की दुर्दशा को अपनी रचनाओं और आवाज के माध्यम से स्वर देते रहे।हीरा सिंह राणा विशुद्ध रूप से पहाड़ के लिए समर्पित रहे।
रोजी-रोटी के लिए उन्हें दिल्ली का रूख करना पड़ा, मगर वहां भी पहाड़ उनके मन में रचा बसा रहा। दिल्ली में उन्होंने तमाम पर्वतीय संस्थाओं के गठन में अहम भूमिका निभाई। इन संस्थाओं द्वारा किए जाने वाले सांस्कृतिक आयोजनों में वे अनिवार्य रूप से प्रस्तुतियां देते रहे।
हीरा सिंह राणा की अधिकतर रचनाएं पहाड़, मिट्टी, जल, जंगल जमीन के प्रति समर्पित रहीं। उन्होंने श्रंगार रस की रचनाएं भी कीं, जिनमें ‘रंगिलि बिंदी घागर काई’ जैसी सुंदर रचना भी शामिल है।
हीरा सिंह राणा का व्यक्तिगत जीवन बेहद संघर्ष भरा रहा। बावजूद इसके, उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं किया, और पहाड़ के दर्द को आवाज देते रहे। अक्टूबर 2019 में दिल्ली सरकार ने गढ़वाली, कुमाऊनी, जौनसारी भाषा अकादमी का गठन कर हीरा सिंह राणा को अकादमी का प्रथम उपाध्यक्ष बनाया। लेकिन दुखद है कि अपने राज्य के सत्ताधीशों की नजरों से हीरा सिंह राणा हमेशा उपेक्षित रहे।
उत्तराखंड राज्य गठन के बाद उम्मीद थी कि हीरा सिंह राणा के पहाड़ के प्रति समर्पण को उचित सम्मान मिलेगा, लेकिन हुक्मरानों ने कभी भी इस सच्चे पहाड़ी रचनाकार की सुध नहीं ली।
जीवन भर पहाड़ की आवाज रहे हीरा सिंह राणा जी ने 13 जून 2020 को 78 वर्ष की उम्र में उन्होंने दिल्ली में अंतिम सांस ली। हीरा सिंह राणा (हिरदा) भले ही आज शारीरिक रूप से जीवित नहीं हैं, लेकिन उनकी रचनाएं, उनकी आवाज हमेशा जिंदा रहेगी। पहाड़ के चितेरे लोकगायक हिरदा को नमन!