‘चिंतन’ और ‘भाषण’ तो ठीक है सरकार, ‘एक्शन’ कब होगा, ये अहम सवाल है !
मसूरी में चल रहे धामी सरकार के चिंतन शिविर के पहले दिन प्रदेश के मुख्य सचिव डॉक्टर एसएस संधू द्वारा दिए गए भाषण की प्रदेश के राजनीतिक हलकों में खासी चर्चा हो रही है।
मीडिया का बड़ा तबका तो उनके बेबाक बोल के लिए उनकी हिम्मत की दाद दे रहा है।
कहा जा रहा है कि राज्य गठन से लेकर आज तक, 22 वर्षों में पहली बार किसी मुख्य सचिव ने इतनी बेबाकी से ब्यूरोक्रेसी की पोल खोलने का साहस दिखाया है।
निश्चित रूप से यह बात 100 फीसदी सही है कि पहली बार किसी मुख्य सचिव स्तर के अफसर ने सार्वजनिक मंच से प्रदेश की ब्यूरोक्रेससी की ‘असलियत’ इतनी बेबाकी से बयान की है।
प्रदेश के सबसे बड़े नौकरशाह डॉक्टर संधू ने जिस तरह काम न करने वाले अफसरों को कर्तव्यबोध का पाठ पढ़ाने से लेकर वीआरएस लेने तक की नसीहत दी, उसके लिए निश्चित रूप से उनकी तारीफ की जानी चाहिए, लेकिन इससे इतर उनका यह भाषण उनकी तरफ भी कुछ सवाल उछालता है ?
सवाल यह है कि, जिस ब्यूरोक्रेसी की खामियों को बीते रोज उन्होंने प्याज के छिलकों की तरह उतार कर प्रदेश के सामने रखा, आखिर एक साल से ज्यादा वक्त से उसकी कमान किसके हाथों में है ?
सवाल यह है कि, जिन अफसरों की ‘ना’ कहने और हर काम में मीनमेख निकालने की बुरी आदत पर उन्होंने दु:ख जताया, उन अफसरों पर एक्शन लेने का जिम्मा किसका है ?
सवाल यह है कि जिन ‘नाकारा’ अफसरों को वीआरएस लेने की नसीहत दी गई, उनकी कुंडली सार्वजनिक करने का काम किसका है ?
बतौर मुख्य सचिव अपने 14 महीने के कार्यकाल में क्या एसएस संधू साहब ने इस दिशा में कोई कार्यवाही की ?
यदि इसका जवाब ‘ना’ है तो फिर कल दिए गए भाषण को प्रवचन से ज्यादा कुछ नहीं माना जाना चाहिए।
सवाल यह भी है कि ब्यूरोक्रेसी के जिन दुर्गुणों पर कल मुख्य सचिव ने दु:ख जताया, उनको उजागर करने के लिए क्या चिंतन शिविर के ‘मुहूर्त’ तक इंतजार करने की कोई मजबूरी थी ?
अपना काम जिम्मेदारी से न करने वाले ऐसे कितने साहबों के खिलाफ 14 माह की अवधि में एक्शन लिया गया, अथवा जिस कारण से नहीं लिया जा सका, क्या यह प्रदेश की जनता के सामने नहीं आना चाहिए ?
मुख्य सचिव एसएस संधू ने निसंदेह चिंतन शिविर के मौके पर ही सही, प्रदेश की बेलगाम हो चुकी नौकरशाही का असल चेहरा उजागर करने का साहस भरा काम किया है, लेकिन जब तक ऐसे एक भी अफसर के खिलाफ कड़ा एक्शन नहीं होता, तब तक उनकी बातों पर शायद ही अफसरशाही अमल करेगी।
दरअसल 22 बरस की यात्रा में उत्तराखंड ऐसे तमाम प्रवचनों का आदी हो चुका है, जो सुनने में बहुत ही कर्णप्रिय लगते हैं, मगर उन पर कभी अमल नहीं हो पाता।
बहरहाल ब्यूरोक्रेसी के जिस गैर जिम्मेदाराना रवैये पर सवाल उठाते हुए मुख्य सचिव ने मसूरी में अफसरों को पाठ पढाया, वह उत्तराखंड की बहुत बड़ी समस्या बन चुका है।
शायद ही कोई विभाग होगा जो अफसरशाही के गैर जिम्मेदाराना रवैये की छाया से अछूता होगा।
ऐसे में सवाल उठता है कि ईमानदार छवि वाले अधिकारी एसएस संधू के बेबाक भाषण के बाद क्या हम अफसरशाही से किसी सुधार की उम्मीद कर सकते हैं। क्या मुख्य सचिव संधू से ही इस दिशा में पहल कदमी की उम्मीद की जा सकती है ?
जिन मुद्दों को लेकर इन दिनों ब्यूरोक्रेसी सबसे ज्यादा निशाने पर है, उनकी बात करें तो, स्मार्ट सिटी परीयोजना का मुद्दा संभवत: पहले स्थान पर होगा।
उस स्मार्ट सिटी का मुद्दा, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजक्ट है। इस परियोजना के तहत देश के जिन 100 शहरों को चुना गया उनमें से एक देहरादून भी है।
लेकिन देहरादून में स्मार्ट सिटी परियोजना को लेकर सरकार लगातार सवालों के घेरे में है। परियोजना के तहत हो रहे निर्माण कार्यों को लेकर खुद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और उनकी ही पार्टी के दो विधायक नाराजगी जता चुके हैं।
इतना ही नहीं, पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी परियोजना के तहत हो रहे कार्यों को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं। बकौल त्रिवेंद्र सिंह रावत, उनके कार्यकाल में देहरादून स्मार्ट सिटी की रैंकिंग में 9 वें स्थान पर था, लेकिन आज हालात खराब हैं।
कुल मिलाकर देखा जाए तो सभी के निशाने पर अफसरशाही ही है। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि क्या परियोजना में हीला हवाली को लेकर उठाए जा रहे सवालों पर अफसरों की जवाब देही तय नहीं होनी चाहिए ?
क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि स्मार्ट सिटी परियोजना का काम लगातार सवालों के घेरे में क्यों है ?
यहां पर स्मार्ट सिटी के मुद्दे का ही जिक्र इसलिए किया गया है कि जिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह ड्रीम प्रोजक्ट है, मुख्य सचिव एसएस संधू उन्हीं प्रधानमंत्री मोदी के सबसे ज्यादा भरोसेमंद अफसरों में माने जाते हैं।
ऐसे में वे इस परियोजना से जुड़े अफसरों की जवाब देही तय करके यह संदेश जरूर दे सकते हैं कि मसूरी में उनका दिया भाषण ‘प्रवचन’ नहीं बल्कि जिम्मेदारी तय करने से पहले का आखिरी ‘अल्टीमेटम’ था।