चिपको आंदोलन के 50 वर्ष पूरे, जंगल को बचाने के लिए था गौरा देवी का बड़ा आंदोलन
चिपको एक हिंदी शब्द है जिसका अर्थ ‘चिपके रहने’ या ‘गले लगाने’ से है। गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने लाखों पेड़ों को काटने से बचाया।
भारत में पर्यावरण को लेकर रैणी में हुए प्रसिद्ध चिपको आंदोलन को इस वर्ष 2023 में 50 साल पूरे हो रहे हैं। 24 अप्रैल 1973 को मंडल घाटी में ‘चिपको आंदोलन’ की शुरुआत हुई। चिपको आंदोलन की वजह से हिमालय के लाखों पेड़ों को कटने से बचाया गया। शुरुआत में चिपको आंदोलन का नेतृत्व पुरुषों ने किया था। लेकिन 26 मार्च, 1974 को रैणी से सभी पुरुष चमोली कस्बे में गए थे तब महिलाओं ने ही कमान थामी थी।
चिपको आंदोलन का नेतृत्व करने वाली गौरा देवी ने उन महिलाओं के समूह का नेतृत्व किया था, जिन्होंने सबसे पहले जंगलों की रक्षा की। सामने लकड़हारों की कुल्हाड़ी से भी न डरते हुए खुद पेड़ों से चिपक गयी थी और कई संख्या में पेड़ो को कटने से बचा लिया। एक समय जब कुल्हाड़ी लेकर कुछ लोगो को जंगल जाते हुए देखा तो गौरा देवी ने तुरंत महिलाओं को लामबंद किया। लगभग 30 महिलाओं और युवा लड़कियों ने अपना काम छोड़ दिया और जंगलों की ओर जाने वाली संकरी सड़कों पर दौड़ पड़ीं।
सभी ने पेड़ काटने वालों को यह संदेश देना कि “पेड़ों को काटने से पहले हमारे शरीर को काटना होगा”।
इतिहास :
1970 की जुलाई में अलकनंदा घाटी में विनाशकारी बाढ़ आई जिससे पूरी रैणी घाटी तहस नहस हो गयी। भूस्खलन के कारण पहाड़ियों में कई छोटे गांव बर्बाद हो गए। घाटी के लोगों के मन में एक ही बात थी की इतनी विनाशकारी बढ़ आने के पीछे का कारण क्या था…? काफी जानकारी के बाद उन्हें पता चला की बाढ़ का मुख्य कारण घाटी में जगह जगह कट रहे पेड़ है जिसको देखते हुए ‘चिपको आंदोलन’ की शुरुवात हुई।
चमोली के ग्रामीणों ने भविष्य में बाढ़ और भूस्खलन से खुद को बचाने के लिए जंगलों की रक्षा करने का जिम्मा खुद अपने हाथों में लेने की सोची। रैणी में 1973 में शुरू हुए इस आंदोलन का अहम हिस्सा था। गांव की महिलाओं द्वार खुद को पेड़ो से चिपकाकर लकड़हारों और जंगलों के बीच एक दीवार बन कर खड़ी हो गईं। पेड़ों को काटने आये लकड़हारों से वे आमने सामने की लड़ाई को तैयार हो गई।
महिलाएं पेड़ों को ठेकेदारों की कुल्हाड़ियों से काटने से रोकने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ पेड़ों को गले लगाती हैं, जिससे उनकी जान को भी खतरा होता है। लेकिन अपनी घाटी को बचाने के लिए उन्होंने किसी की परवाह नहीं की और एक बड़े आंदोलन को जन्म दिया।
रैणी के ग्रामीणों को सता रहा है अब डर
‘चिपको आंदोलन’ भले ही काफी लोकप्रिय प्रदर्शन रहा हो। जन-जीवन को बचाने के लिए जंगलो का जिम्मा उन्होंने लिया था लेकिन 1970 के बाद से चमोली में कई आपदाएं आयी जिससे रैणी में ग्रामीणों का कहना है कि वे आपदाओं के चलते डर के साये में जी रहे हैं। आपदाएं अब लगातार आ रही हैं और तीव्र होती जा रही हैं।
यह गांव कभी भूटिया समुदाय की कई पीढ़ियों का घर हुआ करता था। भूटिया समुदाय उन लोगों का एक समूह था जो 9वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास तिब्बत से दक्षिण की ओर चले गए थे और भारत-तिब्बत सीमा के साथ पर्वत श्रृंखलाओं में बस गए थे। अब इनमें केवल बुजुर्ग निवासी हैं। वर्तमान में जंगलों में जो सब्जियां थीं, वे अब खेतों में नहीं मिल रही। जंगलों में जानवरों को भोजन नहीं मिलता तो वे खेतों में आ जाते हैं। जिसके कारण बच्चे, खेतों को बंजर छोड़कर शहर में काम करने पहुंच रहे है और धीरे धीरे पूरा क्षेत्र खाली हो रहा है।”