उत्तराखंडवासियों के लिए काला दिन : खटीमा घोली कांड की पूरी कहानी
आज 1 सितम्बर है, हो सकता है कि आज का दिन हम सबके लिए साधारण हो, आप सुबह उठ के अपने रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गए हों लेकिन आज का ये साधारण दिन कभी बहुत असाधारण भी हो गया था। खटीमा की सड़कें लाल रंग से रंगी थी ये लाल रंग खून का था। खटीमा की सड़कों पर ताबड़तोड़ गोलियों की आवाज़ें आ रही थीं। लोग चीख रहे थे, चिल्ला रहे थे, खटीमा के लोग जान बचाकर भाग रहे थे लेकिन जो लोग इस पूरे कांड का शिकार हो रहे थे वो लोग चलती गोलियों को भी चीरकर उन दरिंदों के आगे डटे रहे। सीने पर गोलियां खाई लेकिन वे हिले नहीं। हम बात कर रहे हैं 1 सितम्बर 1994 को हुए खटीमा गोलीकांड की। और आज खटीमा गोली कांड की 27वीं बरसी है।
उत्तराखंड को उत्तरप्रदेश से पृथक करने की आवाज़ देशभर में गूंज रही थीं। जगह-जगह आंदोलन हो रहे थे, कहीं उग्र आंदोलन तो कहीं आमरण अनशन। सालों तक चले इस आंदोलन से उत्तरप्रदेश सरकार टस से मस होने को तैयार नहीं थी। बल्कि सुरक्षाबलों को उल्टे लाठीचार्ज के आदेश दिए जा रहे थे।
गुज़रते वक़्त और लगातार होती बर्बरता ने भी आंदोलनकारियों का हौसला नहीं तोड़ा। वे डटे रहे और लाठी की हर चोट के साथ अपनी आवाज़ को और बुलन्द करते रहे।
लेकिन सवाल ये उठता है कि पृथक राज्य की मांग आखिर उठी क्यों?
क्या ऐसा था कि जो हमें उत्तरप्रदेश में रहते हुए नहीं मिल पा रहा था ?
इसका जवाब सिर्फ एक ही है, पहाड़ की बुनियादी सुविधाएं।
उत्तर प्रदेश में रहते हुए उत्तरप्रदेश के मूल पहाड़ियों को बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल पा रही थी । दूर दराज के गांवों तक न सड़के थी, न अस्पताल थे और न ही वो चीजें जो आमतौर पर एक शख्स को चाहिए।
उसके अलावा वे चाहते थे कि पहाड़ियों का एक अलग राज्य बने औऱ उसकी राजधानी भी पहाड़ में ही रहे।
इसलिए पहले एक फिर दस, फिर हज़ार और तब ये आवाज़ उठाई लाखो लोगों ने।
1 सितम्बर को उत्तरप्रदेश सरकार के विरोध में खटीमा में विरोध प्रदर्शन होना था, खटीमा के रामलीला मैदान में सुबह से ही भीड़ शुरू हो गई थी। सुबह के 11 बजे तक 10 हज़ार से ज्यादा लोग मैदान में आ गए थे, इसमे युवा से लेकर बुजुर्ग तक सब शामिल थे। महिलाओं ने अपनी कमर में दरांती लगाई थी तो वहीं सेवानिवृत्त हुए सैनिक अपनी लाइसेंसी बंदूके लेकर आए थे। भीड़ ज्यादा हुई, ये विशाल जनसैलाब सितारगंज रोड से होता हुआ तहसील तक बढ़ा। युवाओं में जोश अपने चरम स्तर पर था तो वहीं बुजुर्ग और सेवानिवृत्त सैनिक उन्हें सम्भाल भी रहे थे।
भीड़ में आगे वाले आंदोलनकारी तहसील पहुंच गए थे और भीड़ में पीछे वाले आंदोलनकारी पुलिस चौकी के पास थे सब कुछ सही चल रहा था कि तभी पुलिस की ओर से शुरू हुआ पथराव इसके बाद लोगों ने अपने घरों से भी पथराव शुरू किया।
जब पत्थर खत्म हो गए तो पुलिस ने अचानक गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। आंदोलनकारी इसके लिए न तो चौकन्ने थे और न ही तैयार। ताबड़तोड़ गोलीबारी से 8 लोगों की तत्काल मृत्यु हो गई और सैकड़ो लोग घायल हो गए। भगदड़ के बीच से पुलिस ने 4 शवो को उठाकर LIU कार्यालय में छिपा दिया और देर रात को उन शवों को शारदा नदी में फेंक दिया। इस घटना के बाद भी सालों तक सरकार और प्रशासन ने मृतकों की संख्या केवल 4 बताई।
इसके बाद पुलिस ने जानबूझकर कर सरकारी कार्यालयों में तोड़फोड़ मचाई। ये कहने के लिए की आंदोलनकारियों की उग्रता के बाद उन्हें जवाबी कार्यवाही में गोली चलानी पड़ी। सबूत के तौर पर पहाड़ी महिलाओं के कमर में दरांती और लाइसेंसी बंदूकों का हवाला दिया गया।
इस घटना के 6 साल बाद उत्तराखंड तो अलग हो गया लेकिन पृथक उत्तराखंड के 22 साल होने पर भी सवाल ये उठता है कि क्या सच में हमें यही उत्तराखंड चाहिए था?
जहां न तो नौकरियां हैं, न गांवों में सड़कें हैं, न अस्पताल हैं और जहां अस्पताल हैं वहां डॉक्टर्स नहीं हैं। आज़ाद भारत के इतिहास में पहाड़ो से इतने पलायन नहीं हुए जितने इन 22 सालों में हो गए। सरकारों से सवाल पूछो तो वे इसका दोष पार्टियों को देते हैं। नेता बस न्यूटन के तीसरे नियम की तरह क्रिया प्रतिक्रिया कर रहे हैं। घोर निंदा कर रहे हैं और कुछ नहीं।