भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी 82 वर्षीय पत्नी से तलाक मांगने वाले 89 वर्षीय भूतपूर्व सशस्त्र बल अधिकारी की याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी की भारतीय समाज में विवाह एक पवित्र और अमूल्य भावनात्मक बंधन है। इस दंपती ने मार्च 1963 में शादी की थी और उनके दो बेटियाँ और एक बेटा है । पति एक डॉक्टर है और भारतीय वायु सेना से सेवानिवृत्त है, जबकि पत्नी एक पूर्व शिक्षिका है।
उनके बीच संबंधों में खटास की शुरूआत जनवरी 1984 में हुई जब पति की पोस्टिंग मद्रास में हो गई और पत्नी ने उसके साथ जाने से इनकार कर दिया । खबरों के मुताबिक , पत्नी शुरुआत में अपने ससुराल वालों के साथ रही और बाद में अपने बेटे के साथ।
इस दौरान पति ने आरोप लगाया कि उसकी पत्नी ने उसके साथ क्रूर व्यवहार किया । पति के अनुसार उसकी पत्नी दिल का दौरा पड़ने पर अस्पताल में भर्ती होने के दौरान भी उससे मिलने नहीं आई और पति के अधिकारियों से उसके खिलाफ शिकायत भी दर्ज कराई।
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपनी याचिका में, व्यक्ति ने कहा की वह 1996 से अपनी पत्नी से अलग रह रहा है और उनकी शादी पहले ही “पूरी तरह से टूट चुकी है”।
फरवरी 2000 में चंडीगढ़ जिला न्यायालय ने उन्हें तलाक दे दिया था लेकिन पत्नी की अपील पर, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की एकल-न्यायाधीश पीठ ने दिसंबर 2000 में आदेश को पलट दिया। फरवरी 2009 में, उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने एकल-न्यायाधीश पीठ के आदेश को सही ठहराया, जिसके बाद पति ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
अपने फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि “अपीलकर्ता ( पति ) यह साबित करने में विफल रहा कि प्रतिवादी ( पत्नी ) ने अपीलकर्ता के साथ “क्रूरता” का व्यवहार किया था ।
जस्टिस अनिरुद्ध बोस और बेला एम त्रिवेदी की पीठ के 10 अक्टूबर को सुनाए गए फैसले में कहा कि, “इसमें कोई शक़ नहीं कि पार्टियां पिछले कई सालों से अलग रह रही हैं और उन्हें एक साथ लाने के सभी प्रयास विफल रहे हैं। इन परिस्थितियों में, यह माना जा सकता है कि विवाह भावनात्मक रूप से पूरी तरफ मर चुका है ।”
अदालत ने पाया कि 82 साल की पत्नी ने 1963 से अपने पूरे जीवन भर पत्नी के पवित्र रिश्ते को बनाए रखा है और इन सभी वर्षों में अपने तीन बच्चों की देखभाल भी की । प्रतिवादी पत्नी अभी भी अपने पति की देखभाल करने की इच्छुक है और जीवन के इस पड़ाव पर उसे अकेला नहीं छोड़ना चाहती। पत्नी के अपनी भावनाएँ व्यक्त करते हुए अदालत को बताया था की वह ‘तलाकशुदा’ महिला होने का कलंक लेकर नहीं मरना चाहतीं।
अपील को खारिज करते हुए पीठ ने अपने आदेश में कहा की , “ आज के समाज में तलाक हो सकता है एक कलंक नहीं रह गया हो , लेकिन यहां हम प्रतिवादी की भावनाओं को लेकर चिंतित हैं। इन परिस्थितियों में, प्रतिवादी पत्नी की भावनाओं पर विचार करते हुए और उनका सम्मान करते हुए, न्यायालय की राय है कि अनुच्छेद 142 के तहत अपीलकर्ता के पक्ष में फैसला दोनों पार्टियों के साथ ‘पूर्ण न्याय’ नहीं होगा बल्कि प्रतिवादी के साथ अन्याय होगा।