कैप्टन धूम सिंह चौहान : भारतीय वीर जिन्हें वायसराय ने खुद पहनाया था मेडल
आज से 120 साल पहले सन 1903 की बात है। तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने गढवाल रायफल्स के मुख्यालय लैंसडाउन में फौज की भर्ती आयोजित की। बड़ी संख्या में पहाड़ के तमाम इलाकों से युवा फौज में भर्ती होने के लिए लैंसडाउन पहुंच गए। इन्हीं युवाओं में गढवाल के सरमोला गांव (वर्तमान में चमोली जिला) का एक 17 वर्षीय युवक भी था।
बेहद साधारण पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले उस युवक के पास खाने के लिए केवल घर से लाए हुए कुछ उबले हुए भुट्टे थे। अगले कुछ दिन उस युवक ने उन्हीं भुट्टों के सहारे गुजारे। भर्ती वाले दिन पूरे जोश से परीक्षा पास की और गढवाल रायफल में चयनित हो गया।
उसके बाद उस युवक ने तीन दशक के शानदार सैन्य करियर में इतने मुकाम हासिल किए जिनकी शायद ही उस दौर में कल्पना की जा सकती थी।
उस सिपाही ने युद्ध क्षेत्र में अदम्य शोर्य का प्रदर्शन कर स्टार मेडल, वॉर मेडल और विक्ट्री मेडल हासिल किए। उसकी वीरता से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उसे न केवल सरदार बहादुर के खिताब से नवाजा, बल्कि जागीर के रूप में जमीन भी दी।
गढवाल रायफल्स के इतिहास में वह पहला सैनिक था, जो राइफल मैन के रूप में भर्ती हुआ और बेहद प्रतिष्ठत, ‘किंग्स कमीशन’ प्राप्त कर रिटायर हुआ।
इतना ही नहीं, उसकी काबिलियत को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने सम्राट जॉर्ज पंचम के शाही महल ‘बर्मिंघम पैलेस’ में एक साल की तैनाती दी। उस वीर सिपाही का नाम है कैप्टन धूम सिंह चौहान।
आइए, आज उन्हीं कैप्टन धूम सिंह चौहान की शौर्ययात्रा से रूबरू होते हैं।
कैप्टन धूम सिंह चौहान का जन्म 20 फरवरी 1886 को गढ़वाल के सरमोला गांव में हुआ था। यह गांव पोखरी-कर्णप्रयाग मार्ग पर स्थित है और वर्तमान में चमोली जिले के अंतर्गत आता है।
उनका बचपन बेहद कठिन था, पहाड़ में होने वाली रोजाना की दिक्कतों को वे झेलते रहते थे। गांव के ही स्कूल से उन्होने अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। साल 1903 में वे गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हुए। इसके बाद उनके जीवन का शानदार और प्रेरणादाई सफर शुरू हुआ।
साल 1914 में उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में सीनियर इंस्ट्रक्टर ऑफ सिग्नलिंग के रूप में भाग लिया, इस युद्ध में उन्होंने न केवल अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया बल्कि सीनियर ऑफिसर के शहीद हो जाने पर सिग्नलिंग यूनिट का सफलतापूर्वक निर्देशन भी किया ।
सिग्नलिंग यूनिट सेना की वह टुकड़ी होती है जो युद्ध के दौरान मोर्चे पर सबसे आगे रहती है और सिग्नल के जरिए स्थिति की जानकारी देती है। नो मैन्स लैंड में जाकर टेलीफोन लाइन बिछाने जैसे खतरानक काम को यही यूनिट अंजाम देती है।
तब रायफलमैन के पद पर तैनात धूम सिंह चौहान ने जिस वीरता का परिचय दिया, उसके लिए उन्हें स्टार मेडल, वॉर मेडल और विक्ट्री मेडल से सम्मानित किया गया।
वर्ष 1919 में उन्हें एक और बड़े युद्ध अभियान, थर्ड एंग्लो-अफगान वॉर में खैबर दर्रे के प्रवेशद्वार कहे जाने वाले जमरूद नगर में भेजा गया। वहां ड्यूटी करते हुए वे घायल हो गए, लेकिन इसके बाद भी उन्होंने जिस शौर्य का प्रदर्शन किया उसके लिए उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया इण्डिया’ सेकेंड क्लास का मेडल और साथ ही ‘इंडियन जनरल सर्विस मेडल’ से सम्मानित किया गया।
साल 1929 में धूम सिंह चौहान यूनाइटेड किंगडम के सम्राट जॉर्ज पंचम के ऑर्डली ऑफिसर के लिए चयनित हुए और लंदन स्थित बकिंघम पैलेस में एक साल तैनाती दी। उत्कृष्ठ सेवा के लिए उन्हें ‘सेरॉयल विक्टोरियन मेडल’ प्रदान किया गया।
सेवा के शानदार रिकॉर्ड, बहादुरी और कर्मठता को देखते हुए उन्हें अगस्त 1932 में ‘ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ फर्स्ट क्लास का तगमा और सरदार बहादुर का खि़ताब प्रदान किया गया। तत्कालीन वायसराय, लॉर्ड विलिंग्डन ने शिमला में सम्राट के जन्मदिन की परेड पर खुद अपने हाथों से उन्हें मेडल पहनाया।
सेवानिवृत्ति के बाद जीवन-
31 साल के शानदार करियर के बाद वे सेवानिवृत्त हुए और अपने गांव गांव लौट आए। गांव लोट कर वे सामाजिक कार्यों में सक्रिय हो गए। उन्होंने गांव के विकास के लिए कई कार्य किए खासतौर पर शिक्षा और गढ़वाल में हर साल लगने वाले एतिहासिक गौचर मेले की प्रगति के लिए उन्होने खूब सक्रियता दिखाई ।
सन 1944 में गौचर मेले को राजकीय संरक्षण प्रदान करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही।
कैप्टन धूम सिंह चौहान के प्रयासों से ही 1947 में गौचर में जनता जूनियर हाईस्कूल की स्थापना हो पाई। उन्होने पहाड़ में लड़कियों को शिक्षित करने के लिए भी कई प्रयास किए।
पहले देश और फिर समाज के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले देश के अनमोल रत्न कैप्टन धूम सिंह चौहान का साल 1953 में 68 वर्ष की आयु में निधन हुआ।
उनके सैन्य योगदान को देखते हुए लैंसडाउन स्थित गढ़वाल रेजिमेंट सेंटर ने सन 1987 में प्रकाशित शताब्दी स्मारक में पूरे पृष्ट पर उनका चित्र प्रकाशित किया।