कहानी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को फांसी से बचाने वाले बैरिस्टर मुकुंदी लाल की

23 अप्रैल 1930 का दिन था। तब देश के तमाम हिस्सों की तरह पेशावर में भी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन चल रहा था। हजारों पठान सत्याग्रही सड़कों पर थे। इस सत्याग्रह की गूंज देश के बाकी इलाकों तक भी पहुंच चुकी थी, जिससे घबराई ब्रिटिश हुकूमत किसी भी कीमत पर इस आंदोलन को कुचलना चाहती थी।

इस आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश सत्ता ने रॉयल गढ़वाल राइफल्स की सैन्य टुकड़ी को चुना, जिसकी कमान हवलदार चंद्रसिंह गढ़वाली को सौंपी गई।

23 अप्रैल 1930 को आजादी के नायक अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में हजारों पठान सत्याग्रही पेशावर के किस्साखानी बाजार में जुलूस निकाल रहे थे। जुलूस को रोकने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने फौज की टुकड़ी को काबुली फाटक पर तैनात कर दिया और लाउडस्पीकर पर लोगों को घर जाने का फरमान सुनाया।

मगर लोगों ने घर लौटने से इंकार कर दिया। इस नाफरमानी से बौखलाए अंग्रेज कमांडर ने तत्काल रॉयल गढ़वाल राइफल्स के जवानों को जुलूस पर गोलियां चलाने का हुक्म दे दिया। लेकिन चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में सिपाहियों ने बगावत कर निहत्थे आंदोलकारियों पर गोलियां चलाने से इनकार कर दिया।

सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की सैन्य बगावत के बाद ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सैन्य विद्रोह की ये सबसे बड़ी घटना थी। इस गुस्ताखी से ब्रिटिश सत्ता बुरी तरह बौखला गई थी। लिहाजा इस सैन्य विद्रोह को भी ब्रिटिश सत्ता वैसे ही कुचलना चाहती थी जैसा उसने 1857 के विद्रोही सैनिक मंगल पांडे के साथ किया था।

चंद्र सिंह गढ़वाली समेत बाकी सिपाहियों को बंदी बना लिया गया और उनके खिलाफ मजबूत केस बनाने की तैयारी शुरू हो गई, ताकि सभी को फांसी पर लटकाया जा सके।

लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी ब्रिटिश हुकूमत चंद्रसिंह गढ़वाली और उनके साथियों को फांसी की सजा नहीं दिलवा पाई। इसकी वजह यह थी कि चंद्रसिंह गढ़वाली और फांसी के बीच एक शख्स चट्टान की तरह खड़ा हो गया था। उस शख्स ने अदालत में पेशावर के बागी सैनिकों का मुकदमा लड़ा और अपनी मजबूत दलीलों से फांसी की सजा नहीं होने दी।

उस शक्स का नाम था बैरिस्टर मुकुंदी लाल।

पेशावर विद्रोह के सैनिकों का मुकदमा लड़ने वाले बैरिस्टर मुकुंदी लाल का नाम, आजादी के आंदोलन में अपना अमूल्य योगदान देने के लिए, इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। उन्होंने आजादी की लड़ाई में एक पत्रकार, एक्टिविस्ट और वकील के रूप में महान योगदान दिया।

गढ़्वाल कमिश्नरी के जनक माने जाने वाले बैरिस्टर मुकुंदीलाल के जन्मदिन के मौके पर उनकी जीवनयात्रा से रूबरू होते हैं।

मुकुंदी लाल का जन्म 14 अक्टूबर 1885 को उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के पाटली गांव में हुआ था, जो वर्तमान में चमोली जिले में आता है। उनकी शुरुआती पढ़ाई लिखाई पौड़ी और अल्मोड़ा में हुई जिसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वे पहले इलाहाबाद और उसके बाद कलकत्ता गए।

इसके बाद उन्होंने गढ़वाल के प्रसिद्ध समाजसेवी घनानंद से आर्थिक सहायता ली और कानूनी शिक्षा प्राप्त करने के लिए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी चले गए। 1919 में वहां से बार-एट-लॉ की डिग्री हासिल कर मुकुंदीलाल वापस भारत लौटे।

1919 में ही ब्रिटिश हुकूमत ने बैरिस्टर मुकुंदीलाल को मार्क्सवादी साहित्य पाए जाने के आरोप में जेल में डाल दिया। इस घटना के बाद मुकुंदीलाल ने अपना पूरा जीवन आजादी की लड़ाई के लिए समर्पित कर दिया।
उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत शुरू कर दी। इस दौरान वे कांग्रेस पार्टी से जुड़ गए और पार्टी में कई अहम जिम्मेदारियां निभाई।
नवंबर 1920 में कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन में उन्होंने पंडित गोविंद बल्लभ पंत के साथ कुमाऊं का प्रतिनिधित्व किया। इस सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि असहयोग आंदोलन का प्रचार कुमाऊं में भी किया जाएगा। इसी सम्मेलन में उनकी मोहम्मद अली जिन्ना से पहली बार मुलाकाल हुई।

इस सम्मेलन के बाद बैरिस्टर मुकुंदीलाल ने लैंसडाउन में कांग्रेस की स्थापना की और गढ़वाल में पार्टी के 800 से ज्यादा सक्रिय सदस्य बनाये।

बैरिस्टर मुकुंदीलाल ने पत्रकार के रूप में भी आजादी के आंदोलन में योगदान दिया। सन 1922 में बैरिस्टर मुकुंदी लाल ने इटली के प्रसिद्ध समाचार पत्र ‘यंग इटली’ की तर्ज पर लैंसडाउन से ‘तरुण कुमाऊं’ नाम से अखबार शुरू किया, जिसमें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बेखौफ होकर लेख लिखे।

उन्होंने कुली बेगार आंदोलन के खिलाफ ‘शक्ति’ अखबार में भी खूब लेख लिखे।
आजादी के आंदोलन में सक्रियता के चलते बैरिस्टर मुकुंदी लाल गांधी जी और जवाहर लाल नेहरू के बेहद करीब आ गए थे। गांधी जी उन्हें बहुत स्नेह करते थे।

सन 1923 और 1924 में बैरिस्टर मुकुंदी लाल गढ़वाल सीट से प्रांतीय काउंसिल के सदस्य चुने गये। सन 1927 में वे काउंसिल के उपाध्यक्ष भी चुने गए।

सन 1030 में उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया और वकालत में रम गए।
इसी साल उन्होंने वीर चंद्रसिंह गढवाली का मुकदमा लड़ा जिसके बाद उनकी प्रसिद्धि और भी बढ़ गई।

सन 1938 से 1943 वे टिहरी रियासत में न्यायाधीश के पद पर रहे। इसके बाद उन्होंने 16 वर्षों तक वे बरेली स्थित टरपेन्टाइन फैक्ट्री में जनरल मैनेजर के पद पर रहे।

आजादी के बाद सन 1962 में बैरिस्टर मुकुंदीलाल ने गढ़वाल सीट से बतौर निर्दलीय उम्मीदवार विधान सभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। चुनाव जीतने के बाद वे कांग्रेस में शामिल हो गए।

पांच साल बाद सन 1967 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया और साहित्य की तरफ झुक गए। इस दौरान उनका सबसे बड़ा योगदान गढवाली चित्रकार मौलाराम की कला को ख्याति दिलाना रहा। बेजोड़ चित्रकार मौलाराम की कला को देश-दुनिया तक पहुंचाने में बैरिस्टर मुकुंदी लाल का बहुत बया योगदान रहा। सन 1968 में मौलराम के चित्रों पर आधारित उनकी पुस्तक ‘गढ़वाल पेंटिंग’ का प्रकाशन हुआ।

सन 1972 में बैरिस्टर मुकुंदी लाल को राज्य ललित कला अकादमी, उत्तर प्रदेश की फैलेशिप से सम्मानित किया गया। सन 1978 में अखिल भारतीय कला संस्थान ने अपनी स्वर्ण जयंती के अवसर पर उन्हें सम्मानित किया।

अपने 97 वर्ष के जीवनकाल में बैरिस्टर मुकुंदी लाल ने हिन्दूधर्म के बाद आर्य समाज, ईसाई धर्म, सिख धर्म, और बौद्ध धर्म में आस्था जताई। बौद्ध धर्म में रहते हुए उन्होंने 10 जनवरी 1992 को अंतिम सांस ली।

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