उत्तराखंडियों के लिए ‘विलेन’ थे मुलायम सिंह यादव

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, समाजवादी पार्टी के संस्थापक और दिग्गज राजनेता मुलायम सिंह यादव का लंबी बीमारी के बाद आज निधन हो गया।

गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल से जैसे ही मुलायम सिंह यादव के निधन की खबर आई, उन्हें श्रद्धांजलि देने का सिलसिला शुरू हो गया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर देश के तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों तथा नेताओं ने मुलायम सिंह के निधन पर शोक प्रकट किया है। उनके गृहराज्य उत्तर प्रदेश में तीन दिन का राजकीय शोक घोषित किया गया है।

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री समेत अन्य राजनेताओं ने भी मुलायम सिंह यादव के निधन पर शोक प्रकट किया है। इस सबसे इतर मुलायम सिंह और उत्तराखंड के रिश्ते की बात करें तो यहां के आम जनमानस के मन में मुलायम सिंह की छवि ‘विलेन’ से कम नहीं है।

इसकी वजह उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौर में मुलायम सिंह यादव की नकारात्मक भूमिका है।

दरअसल उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौर में जब खटीमा से लेकर मसूरी और रामपुर तिराहा (मुजफ्फरनगर) में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाई गई, तब उत्तर प्रदेश की कमान मुलायम सिंह यादव के हाथों में थी।

1994 के दौर में जब उत्तराखंड राज्य आंदोलन चरम पर था तब आंदोलन को कुचलने के लिए पुलिस ने बर्बरता की सारी हदें लांघ दी थी। गढ़वाल और कुमाऊं मंडल में कई जगहों पर आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाने से लेकर लाठीचार्ज तक किया गया। अलग-अलग स्थानों में पुलिस की गोलियों के शिकार हुए 40 से ज्यादा उत्तराखंडियों ने राज्य आंदोलन में अपनी शहादत दी।

इस दौर में आंदोलनकारियों के साथ सबसे ज्यादा क्रूरता 1 और 2 अक्टूबर की दरमियानी रात को रामपुर तिराहा  में हुई जहां पुलिस ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाई और भयंकर लाठीचार्ज किया। यही नहीं, पुलिस ने आंदोलनकारी मातृशक्ति की अस्मिता पर भी हमला किया। कई आंदोलनकारी महिलाओं के साथ बलात्कार जैसा जघन्य अपराध किया गया।

रामपुर तिराहा गोलीकांड में 7 आंदोलनकारियों ने अपना बदिलान दिया-

इससे पहले 1 सितंबर 1994 को खटीमा और उसके अगले दिन 2 सितंबर 1994 को मसूरी में भी पुलिस ने गोली चलाई जिनमें क्रमश: 7 और 6 आंदोलनकारी शहीद हुए, जिनमें दो महिलाएं हंसा धनाई और बेलमती चौहान भी थीं।

रामपुर तिराहा गोलीकांड के अगले दिन यानी 3 अक्टूबर 1994 को देहरादून में भी यूपी पुलिस का दमन देखने को मिला। देहरादून में उस दिन 2 आंदोलनकारी पुलिस की गोलियों के शिकार हुए।

पुलिसिया बर्बरता का यह चक्र अगले साल तक चलता रहा। 10 नवंबर 1995 को श्रीनगर(गढ़वाल) के श्रीयंत्र टापू पर दो आंदोलनकारियों की हत्या कर उनके शवों को अलकनंदा नदी में बहा दिया गया।

इन सारी घटनाओं को पुलिस ने जिस क्रूरता से अंजाम दिया उससे साफ समझा जा सकता है कि पुलिस को तत्कालीन मुलायम सरकार का किस हद तक संरक्षण था।

1994 में उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को जो जख्म मिले, ढाई दशक बाद भी वे हरे हैं। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों पर चली पुलिस की गोलियां आज भी आंदोलनकारियों को उस खौफनाक मंजर की याद दिलाती हैं। इतिहास में यह घटना तत्कालीन यूपी सरकार की, अपनी जनता पर बर्बर जुल्म के रूप में दर्ज है।

इस बर्बरता के लिए मुलायम सिंह यादव और उनका तत्कालीन शाशन-प्रशासन उत्तराखंडियों की निगाहों में हमेशा ‘विलेन’ बना रहेगा।

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