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IPC Bill 2023  –  आखिर कितने व्यावहारिक है आईपीसी विधेयक 2023  ?

केंद्र द्वारा लोकसभा में भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को निरस्त करने के लिए पेश किए गए तीनों विधेयक आखिर कितने व्यावहारिक है ? वॉयस ऑफ उत्तराखण्ड की एक विशेष पेशकश ।

IPC Bill 2023  – शुक्रवार 11 अगस्त 2023 को , देश के गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (एविडेंस एक्ट) की जगह पर तीन नए क़ानूनों के मसौदे को पेश किया।

विधेयक पेश करते समय अमित शाह ने कहा, “1860 से 2023 तक अंग्रेज़ों के द्वारा बनाए गए क़ानूनों के आधार पर इस देश की आपराधिक न्याय प्रणाली चलती रही है। ये तीन नए क़ानून हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाएंगे और भारतीय आत्मा की अद्वितीयता को मजबूत करेंगे।”

आईपीसी विधेयक 2023 – नयी भारतीय न्याय प्रणाली के व्यावहारिक दृष्टिकोण

लोकसभा में प्रस्तुत विधेयकों के अनुसार, भारतीय न्याय प्रणाली अब आईपीसी 1860 की जगह ले रही है, तो वही भारतीय नागरिक सुरक्षा विधेयक 2023 सीआरपीसी 1973 की जगह ले रहा है, और भारतीय साक्ष्य विधेयक 2023 अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के स्थान पर साक्ष्यों की नियमों और प्रक्रियाओं को नियंत्रित करेगा ।

सरकार का दावा है कि नया विधेयक न केवल ब्रिटिश काल से चले आ रहे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) को प्रतिस्थापित करेगा , बल्कि इसके मौजूदा प्रावधानों में भी सुधार करेगा।

आईपीसी विधेयक 2023 – मुख्य बिन्दु 

नए विधेयक में भारतीय न्याय प्रणाली में 356 संशोधन किए गए हैं। इसमें राज्य के खिलाफ अपराध, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध, और हत्या को प्राथमिकता दी जाएगी। विधेयक में पहली बार आतंकवादी गतिविधियों और संगठित अपराधों को भी शामिल किया गया है।

आईपीसी के संदर्भ में, धारा 124-ए राजद्रोह से संबंधित है, जिसमें आजीवन कारावास या कारावास की सजा का प्रावधान है जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है, जिसमें जुर्माना भी जोड़ा जा सकता है। नए कानूनों में से “राजद्रोह” को हटा दिया गया है और अब सेक्शन 150 के तहत “भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को बनाए रखना और उसकी रक्षा करना”, परिभाषित किया जाएगा।

नए विधेयक में मॉब लिंचिंग के लिए भी सजा का प्रावधान है, जिसमें कुछ मामलों में मौत की सजा भी शामिल है। अन्य संभावित सजाओं में नाबालिग से बलात्कार के लिए मौत की सजा और सामूहिक बलात्कार के लिए 20 साल की जेल से लेकर आजीवन कारावास तक शामिल है। प्रावधानों में चुनाव के दौरान मतदाताओं को रिश्वत देने के लिए एक साल की कैद भी शामिल है।

उत्तराधिकारिता को लेकर प्रश्नचिन्ह

सरकार द्वारा विधेयक पेश करने के बाद से ही  नए क़ानूनों की व्यवहारिकता को लेकर कानूनी विशेषज्ञों के बीच नए सिरे से बहस शुरू हो गई है। विशेषज्ञों के बीच यह सवाल उठ रहा है कि क्या ये नए क़ानून कोर्ट के काम को प्रभावित करेंगे ? क्या पुराने मामलों पर भी नए क़ानूनों का प्रभाव होगा ? क्या पुराने मामलों की नए क़ानूनों के तहत फिर से सुनवाई, आरोप पत्र दाखिल करने और ट्रायल की आवश्यकता होगी ? क्या पुलिस और संबंधित प्राधिकरणों को इस बारे में जानकारी उपलब्ध कराने को लेकर कोई समय सीमा तय की गयी है ?

गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिंदी नामों को लेकर उठे सवाल

नए विधेयकों में कानूनों के नाम को अंग्रेजी से हिन्दी में बदलने को लेकर कई गैर हिन्दी भाषी राज्यों ने भी सवाल उठाए हैं। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म “एक्स” पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने कहा, “भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, और भारतीय साक्ष्य विधेयक में व्यापक बदलाव के माध्यम से भारत की विविधता के सार के साथ छेड़छाड़ करने का केंद्रीय भाजपा सरकार का दुस्साहसपूर्ण प्रयास भाषाई साम्राज्यवाद को दर्शाता है।”

हालांकि,  भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343(1) में विशेष रूप से बताया गया है कि “संघ की आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी होगी। ” उसके साथ ही, राजभाषा अधिनियम, 1963 के खंड 3 में संघ के आधिकारिक उद्देश्यों और संसद में उपयोग के लिए अंग्रेजी भाषा का भी उल्लेख है। इसलिए भारत सरकार की आधिकारिक भाषाएं भारतीय अंग्रेजी और आधुनिक हिंदी हैं।

भारत विविधताओं का देश है जहाँ विभिन्न गैर हिन्दी भाषी राज्य भी हैं। 1965 में तमिलनाडु में हुआ हिंदी विरोधी आंदोलन इस बात का सबूत है कि गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा को थोपने की कोशिश उलटी पड़ सकती है । समय-समय पर गैर हिन्दी भाषी राज्यों , जैसे बंगाल और तमिलनाडु  में, हिंदी भाषा को थोपने को लेकर वर्त्तमान केंद्रीय सरकार को तीखी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। वही सुप्रीम कोर्ट और अन्य कोर्ट की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है  और यहाँ कई न्यायाधीश , वकील और स्टाफ गैर हिन्दी भाषी राज्यों से ताल्लुक रखते है । सरकार के इस कदम से गैर हिन्दी भाषी न्यायाधीशों और वकीलों के लिए हिन्दी भाषी नामों के उच्चारण में कठिनाई आ सकती है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि कानून में बदलाव एक लम्बे समय से लंबित था , लेकिन नए कानूनों को इतनी हड़बड़ी में पेश करने को लेकर सरकार कानूनी विशेषज्ञो के निशाने पर है , साथ ही कानूनों को लेकर स्पष्टता का न होना भी सरकार की मंशा पर सवालिया निशान खड़े करता है।

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