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2006 से आरक्षण के बावजूद बिहार में ‘मुखिया पति’ का बोलबाला जारी

पटना, 23 सितंबर (आईएएनएस)। ‘मुखिया पति’ शब्द बिहार जैसे राज्यों में बहुत आम है। सत्ता में बैठी महिलाओं के ये पति जनप्रतिनिधि तो नहीं हैं, लेकिन पंचायत स्तर पर ये निर्वाचित प्रतिनिधियों की तरह काम करते हैं। हस्ताक्षर प्राधिकारी के अलावा राज्य में इनका ‘मूल्य’ लगभग बराबर है।

यह बिहार की कड़वी सच्चाई है, जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महिलाओं को सशक्त बनाने के विचार से 2006 में पंचायत स्तर पर उनके लिए आरक्षण लाया था। ग्रामीण बिहार के पुरुष-प्रधान समाज में, नीतीश कुमार का विचार पूरी तरह से व्यावहारिक साबित नहीं हुआ। लेकिन, इसने नीतीश कुमार को राज्य में महिलाओं का अटूट समर्थन हासिल करने से नहीं रोका, जो बार-बार उनके पीछे मजबूती से खड़ी रहीं और चुनाव के समय अपनी वफादारी को वोटों में बदल दिया।

चतुर राजनीतिज्ञ नीतीश कुमार ने सुनिश्चित किया कि राज्य में महिला सशक्तीकरण के लिए विभिन्न योजनाएं शुरू करके अपने महत्वपूर्ण वोट बैंक को खुश रखा जाए।

उन्होंने महिलाओं को पंचायत स्तर पर आरक्षण के अलावा नौकरियों में भी आरक्षण दिया। उन्होंने इंटरमीडिएट (बारहवीं) पास करने और स्नातक की पढ़ाई पूरी करने पर छात्राओं को नकद इनाम देने की घोषणा कर उन्हें सशक्त बनाया। उन्होंने उन्हें मुफ्त वर्दी, साइकिल, किताब और अन्य बुनियादी ढांचे प्रदान किए, जो उनकी निरंतर शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण थे।

बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उनके पहले कार्यकाल में लिए गए इन सभी निर्णयों का उन्हें 2010 के विधानसभा चुनाव में बड़ा लाभ मिला, जब उनकी पार्टी ने बिहार में 118 सीट जीती।

अब नरेंद्र मोदी सरकार भी उसी रास्ते पर चल रही है और महिला आरक्षण बिल संसद के दोनों सदनों में पास करा चुकी है। वह यह भी जानते हैं कि उनकी पार्टी को महिलाओं का समर्थन मिल गया तो 2024 में लोकसभा चुनाव जीतने के लिए जातिगत संयोजन पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं होगी।

2006 के बाद मुखिया, सरपंच, वार्ड पार्षद और अन्य की सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी गईं। हालांकि, चतुर पुरुष उम्मीदवार उन सीटों से चुनाव लड़ने के लिए अपने जीवनसाथी को लेकर आए।

महिला उम्मीदवार आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ती हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश अपने पतियों के हाथों की कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं हैं। पटना जिले के खुसरूपुर ब्लॉक में 18 पंचायत सीटें हैं और उनमें से नौ महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

उन सीटों पर महिलाएं मुखिया और सरपंच के रूप में चुनी गईं। लेकिन, नामांकन भरने, चुनाव के बाद प्रमाण पत्र लेने और ब्लॉक में एक या दो बैठकों में भाग लेने के अलावा, निर्वाचित नेता के रूप में उनकी कोई भूमिका नहीं है।

खुसरूपुर में शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता अशोक कुमार ने कहा, “वे प्रतिनिधियों को नामांकित करते हैं। यह या तो पति, या पिता, ससुर, भाई, बहनोई या बेटा होता है। ये पुरुष, निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के सभी कार्यों का ख्याल रखते हैं। वे बैठकों में भाग लेते हैं और ब्लॉक विकास अधिकारी उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं करते हैं।”

अशोक कुमार ने आगे कहा, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि नीतीश कुमार बिहार में महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए कुछ शानदार नीतियां लाए हैं। जब वे मुख्यमंत्री बने तो स्कूलों और अस्पतालों की स्थिति दयनीय थी। लोग अपने मवेशियों को स्कूलों और अस्पतालों के परिसर में रखते थे।

नीतीश कुमार ने शिक्षण संस्थानों के भवनों का जीर्णोद्धार कराया। लेकिन, फिर भी छात्रों की स्कूल जाने में ज्यादा रुचि नहीं रही। फिर, उन्होंने मुफ्त वर्दी की शुरुआत की, किताबें दी और ‘खिचड़ी’ नीतियां लाईं जो छात्रों को आकर्षित करती हैं।

उन्होंने युवा लड़कियों को हाई स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करने को लेकर साइकिल नीति शुरू की। उन्होंने बैंकों से न्यूनतम ब्याज पर ऋण प्राप्त करने के लिए जीविका दीदी की अवधारणा भी शुरू की और ये कदम उनके लिए महिलाओं को सशक्त बनाने के एक उपकरण में बदल गए।”

उनका मानना है कि ये कदम कई राज्यों ने अपनाए और सफल रहे। लेकिन, मैं अब भी कहता हूं कि बिहार में पुरुषों के प्रभुत्व के कारण पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए आरक्षण सफल नहीं है।

उन्होंने जोर दिया, “मोदी सरकार का महिला आरक्षण विधेयक नीतीश कुमार से प्रेरित है और मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि यह विधेयक सिर्फ दिखावा है। यह सिर्फ लोगों को बेवकूफ बनाने का एक उपकरण है। भाजपा 2024 के चुनावों में वैसी सफलता की उम्मीद कर रही है, जैसी नीतीश कुमार ने 2010 के बिहार चुनाव में की थी।”

पंचायत स्तर पर पुरुष वर्चस्व के मुद्दे से अवगत बिहार सरकार ने 13 जनवरी, 2022 को पंचायत निकायों और ग्राम कचहरी (ग्राम न्यायालय) के निर्वाचित प्रतिनिधियों के उनकी ओर से दूसरों को नामांकित करने के अधिकार वापस ले लिए थे।

अब, इंडिया गठबंधन के नेता कह रहे हैं कि महिला आरक्षण विधेयक अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले देश के लोगों, विशेषकर महिलाओं को गुमराह करने की एक चाल है।

बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा कि उन्होंने संसद में महिला आरक्षण विधेयक पारित कर दिया है, लेकिन अगर विधेयक के माध्यम से जागरूक और मुखर ओबीसी के अधिकारों का उल्लंघन किया गया तो केंद्र में भाजपा की इमारत मलबे में तब्दील हो जाएगी।

ओबीसी कुल आबादी का लगभग 60 प्रतिशत है। मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि यदि उनके हिस्से का उल्लंघन करने का कोई प्रयास किया जाता है, तो वे जानते हैं कि इस पर दावा कैसे करना है।

राजद नेता ने विधेयक लाने में मोदी सरकार की मंशा पर भी सवाल उठाया, जिसमें कहा गया है कि कोटा नए सिरे से परिसीमन के बाद ही लागू किया जाएगा, जो अभी तक होने वाली जनगणना के बाद होगा।

उन्होंने कहा, ”हम महिलाओं के लिए 33 फीसदी की जगह 50 फीसदी आरक्षण की मांग करते हैं। वे आरक्षण कब देंगे?”

फिलहाल, बिहार बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी दावा कर रहे हैं कि लालू प्रसाद, शरद यादव और अन्य नेताओं ने संसद में इस बिल को फाड़ दिया था।

उन्होंने आगे कहा, “अगर उस समय महिला आरक्षण विधेयक पारित हो गया होता, तो कल्पना करें कि अब उनकी स्थिति कहां होती। इन नेताओं को महिला आरक्षण बिल से कोई लेना-देना नहीं है, उन्हें सिर्फ अपने परिवार और वंशवाद की राजनीति की चिंता है।”

–आईएएनएस

एबीएम

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